ऐसी फिल्म्स की अनुमति क्यों दी जाती है?



Ram Gopal Jat

सोशल मीडिया पर आजकल 'हीरामंड़ी' नामक फिल्म की चर्चा जोरों पर चल रही है। कुछ प्रबुद्धजनों के लेख पढ़कर फिल्म से समाज पर हो रहे नुकसान का आकलन किया जा सकता है। इससे पहले 'जानवर' फिल्म को लेकर भी बुद्धिजीवी लोगों की टिप्पणी पढ़कर मन बहुत व्यथित हुआ। एक प्रसिद्ध शिक्षाविद् ने तो यहां तक कहा कि जानवर जैसी फिल्म्स समाज को 10 वर्ष पीछे ले जाती है, इस तरह की मूवी नहीं बननी चाहिए। संजय लीला भंसाली की फिल्म्स में जो भव्यता होती है, वो पैसे के दम पर हासिल की जा सकती है, लेकिन उनकी मूवीज से समाज का जो नुकसान हो रहा है, उसकी भरपाई न तो की जा सकती है और न ही युवाओं को उससे होने वाले नुकसान से बचाया जा सकता है। 

देश में फिल्म सेंसर बोर्ड है, जो हर फिल्म को देखकर उसको प्रमाण पत्र देता है, उसके पोस्टर पर उसकी कैटेगरी लिखी जाती है, लेकिन क्या इतना सा लिख देना या चेतावनी दे देना ही सबकुछ है? आज बच्चों के हाथ में मोबाइल होता है, इंटरनेट अनलिमिटेड मिल रहा है, सुबह से शाम तक बच्चे अपने परिजनों से जिद करके मोबाइल देखते रहते हैं। किसी तरह की कोई रोक नहीं है, सोशल मीडिया पर तो फिर भी थोड़ा बहुत नियंत्रण होता है, लेकिन उसके अलावा इतनी साइट्स हैं, जिनके बारे में माता—पिता को पता ही नहीं है। बदलते वातावरण और इंटरनेट की दुनिया को समझने में बच्चे बहुत तेज होते हैं। उनको नई—नई साइट्स का पता होता है। 

सरकार बहुत शान से कहती है, बीते 10 साल में इंटरनेट को इतना सस्ता और आमजन की पहुंच में कर दिया है कि एक ठेले वाला भी आसानी से इंटरनेट का मजा ले सकता है। यह बात सही है कि आज दुनिया में सबसे अधिक इंटरनेट उपभोक्ता भारत में है। इंटरनेट का जाल भी भारत में सर्वाधिक वाले देशों में है। इंटरनेट उपलब्ध कराने वाली कंपनी के द्वारा सस्ते से सस्ता इंटरनेट पैकेज दिया जा रहा है। हाथ में मोबाइल से देश दुनिया की तमाम चीजों के बारे में जानना बेहद आसान हो गया है। केंद्र सरकार ने इस दिशा में बहुत काम किया है, जिसकी सराहना करना जरूरी है, लेकिन इन सब के साथ ही सरकार की कुछ जिम्मेदारियां भी बनती हैं, जिनको कोई उठाना  ही नहीं चाहता। सरकार इन दिनों चुनाव में व्यस्त है, तो ब्यूरोक्रेसी के पास इन चीजों के लिए समय ही नहीं है। फिल्म निर्माता आज सिनेमा हॉल के भरोसे नहीं है, जहां पर युवा पहुंचना कम कर चुका है। आज ओटीटी प्लेटफॉर्म है, जो हर हाथ में उपलब्ध है। ओटीटी आने के बाद तो अश्लीलता और निकृष्टता की सारी हदें पार हो चुकी हैं। यहां पर अपराध करने के नए—नए तरीके बताए जाते हैं, लड़कियों के साथ संपर्क बनाने के नए आइडिया सिखाए जाते हैं और समाज को कमजोर करने की हर संभव कोशिश की जा रही है। नशाखोरी ऐसे सिखाई जा रही है, जैसे समाज हित में कोई बहुत बड़ा कार्य किया जा रहा है।

सरकार इन सब पर वैसे ही आंखें मूंदकर बैठी है, जैसे बिल्ली को आते देख कबूतर आंखें मूंदकर बैठ जाता है। क्या सरकार के इस रवैये से आने वाला खतरा टल रहा है? क्या समाज के ऊपर, युवाओं के भविष्य के ऊपर पड़ने वाला दुष्प्रभाव असर नहीं कर रहा है? क्या सरकार अपनी जिम्मेदारी से नहीं भाग रही है? आखिर सरकार के जिम्मेदार अधिकारी तेजी से आ रहे इन खतरों से अनभिज्ञ बनकर क्यों बैठे हैं? सेंसर बोर्ड अब बीते जमाने की बात हो चुकी है, उसमें न तो इतना दम है और न ही उसकी इतना क्षमताएं हैं, कि इस एजेंडे को रोक सके। रूस—यूक्रेन युद्ध को डेढ़ साल बीत गया, इस्राइल—हमास युद्ध को कई महीने बीत चुके हैं, लेकिन यूएन कुछ कर पा रहा है? कुछ नहीं! कारण यह है कि यूएन के पास इतनी ताकत नहीं है कि वो किसी युद्ध को रोक सके। ये सब काम अमेरिका, रूस, जापान, भारत, चीन जैसे शक्तिशाली देश ही कर सकते हैं। ठीक ऐसे ही सेंसर बोर्ड भी यूएन बन गया है। सेंसर बोर्ड दंतवीहीन है, उसके पास करने को अधिक कुछ है ही नहीं। 

इस मामले में सरकार को सख्त कानून बनाकर एक नई संस्था बनानी होगी या सेंसर बोर्ड को और अधिक शक्तियां देकर पर्याप्त संसाधन देने होंगे कि फिल्म्स की अश्लीलता, एजेंडा, आपराधिक प्रवृत्ति वाले दृश्यों पर रोक लगा सके। ओटीटी पर आने वाली सीरीज को सेंसर कर सके। धारावाहिकों में सभ्यता—संस्कृति विरोधी कंटेंट को हटा सके। इंटरनेट की इस दुनिया में हम देख रहे हैं कि हमारी भव्य और सभ्य विरासत खोती जा रही है। परिवारों में तनाव, बच्चों में कुंठित होने की भावना, महिलाओं का बदलता मिजाज, आपसी विश्वास की कमी, बढ़ते अपराध फिल्म्स, धारावाहिक और ओटीटी की देन  हैं। इसपर नियंत्रण को लेकर कई बुद्धिजीवी जन चिंता जाहिर कर चुके हैं, लेकिन सरकार ने अभी तक एक कदम नहीं उठाया है। 

आज सट्टेबाजी के इतने मोबाइल एप्प हैं कि बहुत बड़ा घोटाला हो जाता है, तब तक तो सरकार को पता ही नहीं चलता। जब तक सरकार को पता चलता है, तब तक लाखों लोग लुट चुके होते हैं। आईपीएल चल रहा है, कई सट्टेबाजी एप्प के विज्ञापन क्रिकेटर कर रहे हैं। पिछले साल के आंकड़े बताते हैं कि इन एप्स की कमाई 6800 करोड़ से अधिक थी। ऐसे में कौन नहीं चाहेगा कि इसको बढ़ाया जाए। पिछले आईपीएल में क्रिकेटर इनका विज्ञापन नहीं करते थे, इस बार ऐसा कोई क्रिकेटर नहीं है जो इनके विज्ञापन में शामिल नहीं है। इसका मतलब इस बार कमाई कई गुणा बढ़ने वाली है। पिछले साल के मुकाबले यदि 100 गुणा भी बढ़ी तो 6,80,000 करोड़ हो जाएगी, जो कोई बड़ी बात नहीं है। 

सरकार को इसके लिए एक अलग से मंत्रालय का गठन करके निगरानी रखनी चाहिए और समाज से सुझाव लेने चाहिए कि क्या जो कंटेंट फिल्म, धारावाहिक और ओटीटी के द्वारा परोसा जा रहा है, उसपर नियंत्रण किया जाना चाहिए। करोड़ों लोग दुखी हैं कि जो कंटेंट परोसा जा रहा है, वो बेहद चिंतनीय है, लेकिन फिर भी सरकार आंखें मूंदकर बैठी है, जो बेहद खतरनाक है। 


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