युवा आक्रोश को कब समझेगी सरकार?

 

रविवार को नागौर सांसद हनुमान बेनीवाल के आह्वान पर जयपुर में आयोजित 'युवा आक्रोश महारैली' में उमड़े जनसैलाब को देखकर पक्के तौर पर सरकार की सांसें फूली होंगी! हालांकि, सरकार के अधिकांश मंत्री राजधानी में नहीं थे। हनुमान बेनीवाल ने चुटकी लेते हुए कहा भी, "राज्य सरकार युवाओं की भीड़ से कांप गई है, इसलिए सारे मंत्री भाग गए हैं।" जो भीड़ मानसरोवर के इस मैदान पर 2018 में खुद हनुमान बेनीवाल ने की थी, जो भीड़ इसी मैदान पर 2019 में मोदी ने की थी, वही भीड़ रविवार को इतिहास बना रही थी। 

युवाओं से खचाखच भरे पांडाल में पैर रखने की जगह नहीं थी। संभवतः जितनी उम्मीद हनुमान को थी, उससे भी अधिक युवा रैली में शामिल हुए। भीड़ की संख्या का वास्तविक अंदाजा किसी को नहीं, लेकिन सरकारी गुप्तचर एजेंसियों की रिपोर्ट ही सरकार की चूलें हिलाने को काफी हैं। मीडिया ने जो विश्वासघात आज की तारीख में संविधान के प्रावधानों और परंपराओं से किया है, उससे कहीं अधिक मीडिया जनता के अंदर पनपे अविश्वास का प्रतीक भी बन गया है। 

विज्ञापन के दम पर ही खबर दिखाना या लिखना, यही मीडिया की दुर्गति का सबसे बड़ा कारण है। सरकारों के इशारों पर काम करने वाला मीडिया जनता को पहले भी पसंद नहीं था और आज भी नहीं है, लेकिन मीडिया पर कारोबारियों का कब्जा है और उनको सिर्फ पैसे उगाही से मतलब है, उनको देश, जनता, सच या पत्रकारिता से कोई सरोकार नहीं है। आज जनता किसी भी टीवी चैनल या अखबार पर आंखें बंद करके विश्वास नहीं करती तो उसका सबसे बड़ा कारण आज का नाकारा, निकम्मा और बिका हुआ मीडिया ही है। 

खैर! रैली के पहले और रैली के बाद राज्य सरकार के मंत्री यह साबित करने में जुटे रहे कि हनुमान बेनीवाल के युवाओं की इस भीड़ से वे दबाव में आने वाले नहीं हैं। ये बातें भी उन मंत्रियों ने कहीं, जिनकी सरकार में दो फीसदी भी चलत नहीं है। यानी जिनको नाममात्र का मंत्री पद मिला हुआ है, वे बिना हैसियत हनुमान की क्षमता नापने का साहस कर रहे हैं। 

इनको यह अंदाज़ा नहीं है कि आज की तारीख में पूरी सरकार में मुख्यमंत्री से लेकर तमाम मंत्रियों में केवल कृषि मंत्री किरोड़ी लाल मीणा ही इस तरह की भीड़ जुटा सकते हैं, जिन्होंने बीजेपी से बाहर रहते इसी मैदान पर एक बार जुटाई भी थी। बाकी कोई भी मंत्री या सीएम मिलकर भी इतनी भीड़ नहीं जुटा सकते, फिर भी अपने गाल बजाने के लिए मुग़ालता पालकर बैठे हैं।

जो मुख्यमंत्री, मंत्री और तमाम विधायक मोदी और भाजपा के नाम पर जीतकर आते हैं, वे भी इस भारी भीड़ पर सवाल उठाते हैं, तो उनकी सोच पर दया ही आती है। इनको यह भी पता नहीं है कि लोकतंत्र में यही भीड़, यानी वोट ही उनको सत्ता दिलाने और सत्ता से भगाने का काम करती है। फिर भी यदि कोई मंत्री यह कहे कि भीड़ से उन पर कोई दबाव नहीं है, तो लोकतंत्र में इससे बड़ी छोटी सोच कुछ नहीं हो सकती।

यह बात सही है कि आज चंद फीसदी वोट अधिक लेकर भाजपा सत्ता में है और संविधान के अनुसार एक वोट भी अधिक और एक सीट भी अधिक पाने पर सत्ता का सुख मिल जाता है। लेकिन क्या 51 लोगों के वोट से 49 जनों के वोट की कीमत कम हो जाती है? शायद नहीं! तभी लोकतंत्र में विपक्ष को महत्व दिया जाता है। लाखों लोग यदि आपको किसी बात के लिए बोल रहे हैं, तो मानकर चलिए कि जनता आपसे बेहद नाराज़ है।

पिछले दिनों देश की सेनाओं द्वारा शानदार प्रदर्शन करते हुए पाकिस्तान की हेकड़ी निकाली गई थी, उसके बाद बीकानेर में मोदी ने सभा करके उसका स्वाद चखने का काम किया। मोदी की उस सभा में जितनी भीड़ थी, कमोबेश उतनी ही भीड़ हनुमान की सभा में भी रही। जबकि बीकानेर की सभा के लिए राज्य की पूरी सरकार, पूरा सरकारी सिस्टम, सरकारी कर्मचारी, निचले स्तर के तमाम सरपंचों से लेकर नरेगा के मजदूरों तक को पाबंद किया गया था, तब मोदी के लिए पांडाल भर पाया था। 

हनुमान बेनीवाल ने अपने दम पर युवाओं के मुद्दे को उठाकर उतनी भीड़ बुला ली, निश्चित ही समझदार सरकार के लिए जनता का यह इशारा ही काफी है। वैसे राज्य की सरकार में आज इतना समझदार कोई दिखाई देता भी नहीं है। हनुमान के साथ संकट यह है कि उनके समर्थक तो खूब हैं, लेकिन जब वोट डालने की बारी आती है तो राज्य में वोट बंट जाता है। 

तीसरे नंबर पर वोट हासिल करके भी आज आरएलपी का एक विधायक नहीं है। 2018 में चंद वोटों के कारण हनुमान बेनीवाल की पार्टी कम से कम 15 सीटों पर जीत हासिल करने से वंचित रह गई। इसी तरह से 2023 में भी कई सीटों पर जीत के बेहद करीब जाकर हारी। कुछ सीटों पर भाजपा और कांग्रेस वाले तीसरे नंबर पर रहे।

इस चुनौती से निपटने के लिए हनुमान के पास दमदार लोगों की जरूरत है, जो मोटे पैसे से ही संभव है। पार्टी चलाने के लिए पैसा चाहिए और पैसा उद्योगपति देते हैं, जो हनुमान पर निवेश करके जोखिम नहीं उठाना चाहते हैं। इसके बाद सत्ताधारी दलों का डर भी कारोबारियों को रोक देता है। 

यह बात बिल्कुल सही है कि भाजपा के नेता आज मोदी के नाम पर, पार्टी के नाम पर जीतकर संसद और विधानसभा पहुंच जाते हैं, सत्ता का सुख भोग रहे होते हैं, तो कांग्रेस वाले भाजपा की कमजोरियों के कारण सत्ता पा लेते हैं। लेकिन हनुमान बेनीवाल जैसे अपने दम पर लड़ने और जीतने वाले नेताओं को केवल युवाओं, किसानों, गरीबों और लोकतंत्र को जीवित देखने की चाहत रखने वालों का ही सहारा है। 

हनुमान पहली बार 2008 में भाजपा के टिकट पर जीते थे। उसके कुछ समय बाद ही पार्टी ने उनको बाहर निकाल दिया। 2013, 2018 में अपने दम पर जीते, 2019 में सांसद बने, 2023 में विधायक बने और 2024 में फिर सांसद का चुनाव जीते, तो यह कोई शक की बात नहीं कि उनको जनता के विश्वास ने जिताया। उनके पास न भाजपा या कांग्रेस जैसी पार्टी थी और न ही मोदी जैसा करिश्माई केंद्रीय नेता।

ऐसे में हनुमान की यह रैली उन सभी नेताओं के मुंह पर तमाचा है, जो कहते हैं कि वे जीतकर आए हैं। असल में देखा जाए तो भाजपा और कांग्रेस के नेताओं के वोटों की गिनती ही 50 फीसदी से शुरू होती है, जबकि हनुमान के वोटों की गिनती 0 से आरंभ होती है। 

फिर भी बड़बोले नेता कहते हैं कि वे हनुमान की इस भीड़ से दबाव में आने वाले नहीं हैं। ऐसे लोगों को याद रखना चाहिए कि लोकतंत्र में सिर गिने जाते हैं, और सिर भीड़ के होते हैं। यदि लोकतंत्र में सियासी रूप से जीवित रहना है तो भीड़ से डरना भी होगा और दबाव में काम करना भी होगा।


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