राजस्थान के झालावाड़ जिले में गुरुवार को एक भयावह हादसा हुआ, जिसने पूरे इलाके को सदमे में डाल दिया। एक सरकारी स्कूल की बिल्डिंग अचानक भरभराकर गिर गई। उस समय कक्षा में मौजूद 35 बच्चे मलबे में दब गए। हादसे में अब तक 7 बच्चों की मौत हो चुकी है, जबकि 9 बच्चे गंभीर रूप से घायल हैं और उन्हें जिला अस्पताल में भर्ती कराया गया है।
इस दर्दनाक हादसे के तुरंत बाद क्षेत्रीय लोगों में जबरदस्त आक्रोश देखने को मिला। लोगों ने लापरवाही के खिलाफ विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया। लेकिन प्रशासन ने संवेदना जताने के बजाय, पुलिस बल का सहारा लिया। आक्रोशित लोगों को लाठीचार्ज कर खदेड़ दिया गया।
घटना के कुछ ही घंटों के भीतर जिस सड़क से मृत बच्चों के शवों को मोर्चरी ले जाया गया, उसी सड़क का निर्माण कार्य तेज़ी से शुरू कर दिया गया। वजह साफ़ है —कल किसी "साहब" का वीआईपी मूवमेंट है। यदि सड़क पर गड्ढे हुए तो उनके वाहन को झटका लगेगा, और इससे बड़ी त्रासदी इस तंत्र के लिए कोई और हो ही नहीं सकती। जिन बच्चों की सांसें हमेशा के लिए थम गईं, उनके लिए सड़क नहीं बनी, लेकिन साहब के वाहन को हिचकोले न लगे, इसके लिए रातोंरात काम शुरू हो गया।
घटना के बाद मुख्यमंत्री भजन लाल शर्मा, पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और वसुंधरा राजे, शिक्षा मंत्री मदन दिलावर, पूर्व शिक्षा मंत्री बीडी कल्ला, स्थानीय सांसद दुष्यंत सिंह, विधायक, जिला प्रमुख, प्रधान, ब्लॉक शिक्षा अधिकारी जैसे सभी जिम्मेदार लोग चुप्पी साधकर बैठ गए हैं। किसी ने घटनास्थल पर पहुंचकर पीड़ित परिवारों से संवेदना जताने की ज़हमत नहीं उठाई। उल्टा स्कूल के शिक्षकों को निलंबित करके खानापूर्ति कर दी गई, मानो गलती सिर्फ उन्हीं की थी।
विपक्ष भी इस त्रासदी को लेकर उतना ही मौन है, जितना सत्ता पक्ष। केवल सोशल मीडिया पर कुछ ट्वीट्स और पोस्ट्स डालकर अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ लिया गया है। न कोई धरना, न कोई दबाव, न कोई पीड़ितों के पक्ष में कार्रवाई की मांग।
सोशल मीडिया पर लोग कई गंभीर सवाल उठा रहे हैं —
—क्या सरकारी स्कूल की इमारतों की कोई समय-समय पर जांच नहीं होती?
—क्या प्रशासन को स्कूल भवन की जर्जर स्थिति की जानकारी नहीं थी?
—बच्चों की जान जाने के बाद ही सड़कें क्यों सुधरती हैं?
-लाठीचार्ज करना विरोध का जवाब है या संवेदना का तरीका?
इस हादसे में जिन परिवारों ने अपने बच्चों को खोया है, उनके लिए ये सिर्फ एक दुर्घटना नहीं, बल्कि जीवनभर का दर्द है। वे खुद को कोसते रहेंगे कि काश उन्होंने अपने बच्चों को उस स्कूल में दाखिल न किया होता। एक बार फिर सिस्टम की संवेदनहीनता ने साबित कर दिया है कि आम आदमी की जान की कीमत इस देश में अभी भी सबसे सस्ती है।और अंततः, कुछ दिन बाद ये हादसा भी उन सैकड़ों घटनाओं में शामिल हो जाएगा, जिन्हें ‘समय की चादर’ ओढ़ा दी जाती है।
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