राजस्थान हाईकोर्ट ने एसआई भर्ती 2021 रद्द कर दी। आरपीएससी के सदस्यों के उपर भी अविश्वसनीयता जताते हुए सभी की जांच की जरूरत बताई है। कोर्ट के फैसले के बाद एक ओर जहां तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत सरकार सवालों के घेरे में है तो साथ ही सत्ता में आते ही एसआई भर्ती रद्द करने, आरपीएससी भंग करने के वादे करके सत्ता में भाजपा की भजन लाल सरकार पर भी गंभीर सवाल खड़े हो रहे हैं, जिसने 20 महीनों तक इस मामले को लटकाए रखा और अंत में कोर्ट में लिखकर दे दिया कि सरकार का भर्ती रद्द करने का कोई इरादा नहीं है।
सरकार तत्कालीन अशोक गहलोत सरकार की जांच कराए, आरपीएससी के सदस्यों की भी जांच कराए, किरोड़ी लाल मीणा ने जिन तीन आरपीएससी चैयरमेन का नाम लिया था, उनकी भी जांच कराए और इसके साथ ही आरपीएससी की विश्वसनीयता बरकरार रखने के लिए अपने वादे के अनुसार इसका पुनर्गठन करे।
सब-इंस्पेक्टर भर्ती का पूरा मामला आखिरकार उस मुकाम पर आकर ठहर गया है, जहाँ लाखों युवाओं की मेहनत और जनता का 202.38 करोड़ रुपया धूल में मिल चुका है। साथ ही यह साफ़ हो गया है कि राज्य की सबसे बड़ी परीक्षा संस्था पर से जनता का भरोसा पूरी तरह उठ चुका है। यह केवल एक भर्ती का सवाल नहीं है, बल्कि यह पूरे सिस्टम के नैतिक दिवालियेपन और सत्ता की लापरवाही की पराकाष्ठा है। सवाल यह है कि जब गड़बड़ियों के इतने सबूत सामने थे तो मौजूदा सरकार ने 20 महीनों तक यह भर्ती रद्द क्यों नहीं की? किस दबाव में निर्दोष और ईमानदार युवाओं को ठगा जाता रहा और जनता का पैसा बर्बाद होता रहा? और क्या कभी उस पूर्व मुख्यमंत्री, मंत्रियों और अधिकारियों को सजा मिलेगी, जिन्होंने इस पूरे प्रकरण को जानबूझकर जन्म दिया?
भर्ती की शुरुआत उम्मीदों से हुई थी। 859 पदों पर 3.38 लाख उम्मीदवारों ने आवेदन किया। लाखों युवाओं ने वर्षों तक तैयारी की थी, परिवारों ने सपने बुने थे, कोचिंग संस्थानों में लाखों रुपये बहाए गए थे। परीक्षा हुई, परिणाम आए, ट्रेनिंग शुरू हुई और 746 अभ्यर्थियों को नौकरी पर भी रख लिया गया। कईयों की सगाई हुआ, शादी हुई और कुछ के तो बच्चे तक हो गए। चयनितों को आरपीए में बिठाकर दो साल तक वेतन दिया गया, ट्रेनिंग करवाई गई, परिवार खुश हुए कि अब भविष्य सुरक्षित है।
लेकिन अंदर ही अंदर भ्रष्टाचार, पक्षपात और मिलीभगत की सड़ांध ने इस पूरी प्रक्रिया को खोखला कर रखा था। इंटरव्यू में मनमाने नंबर दिए गए, गोपनीय दस्तावेज लीक हुए, आरपीएससी के सदस्य अपने ही बच्चों को फायदा पहुंचाने में लगे रहे और सत्ता से जुड़े लोगों के दबाव में सैकड़ों योग्य उम्मीदवारों का हक मारा गया। हाईकोर्ट ने जब भर्ती को रद्द किया तो यह फैसला न्याय और पारदर्शिता के पक्ष में था, लेकिन साथ ही यह युवाओं के लिए एक गहरा आघात भी है।
लाखों उम्मीदवारों की मेहनत पर पानी फिर गया, और जो 746 चयनित होकर नौकरी में पहुँच चुके थे, उनकी जिंदगी अचानक अनिश्चितता में फंस गई। उन्होंने अपनी सफलता को ईमानदारी से पाया था या नहीं, यह बहस का विषय हो सकता है, लेकिन यह भी सच है कि सभी को एक साथ दंडित करना अन्याय है। गुनहगार अधिकारी और राजनीतिक संरक्षक आज भी खुलेआम घूम रहे हैं, जबकि निर्दोष उम्मीदवारों का करियर खत्म कर दिया गया। सबसे बड़ा सवाल सरकार से है। मौजूदा भाजपा सरकार 20 महीनों से सत्ता में थी। सीएम ने शपथ लेते ही जांच एसओजी को सौंप दी थी, फर्जी एसआई पकड़े जा रहे थे। क्या सरकार को गड़बड़ियों की जानकारी नहीं थी? क्या मुख्यमंत्री और गृहमंत्री को नहीं पता था कि भर्ती प्रक्रिया में धांधली हुई है?
अगर जानकारी थी तो तुरंत कार्रवाई क्यों नहीं की गई? क्यों युवाओं को ट्रेनिंग और नियुक्ति के नाम पर भ्रमित किया गया? क्यों जनता का 202.38 करोड़ रुपया बर्बाद होने दिया गया? इतना पैसा किसी गरीब किसान, मज़दूर या टैक्स देने वाले आम आदमी की जेब से निकला था। सिर्फ चयनित अभ्यर्थियों को दिए गए वेतन पर ही 51.54 करोड़ खर्च हो गए। ट्रेनिंग और परीक्षा आयोजन पर 91.84 करोड़ रुपये बहा दिए गए। बाकी खर्चों को जोड़ लें तो यह राशि किसी राज्य की एक बड़ी योजना के बराबर थी, जो भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई।
इस मामले में केवल मौजूदा सरकार ही नहीं, पूर्ववर्ती सरकारें भी बराबर की दोषी हैं। कांग्रेस की सरकार में भी भर्ती प्रक्रियाओं पर सवाल उठते रहे और भाजपा के शासन में भी हालात सुधरे नहीं। सच तो यह है कि दोनों सरकारों ने युवाओं को केवल झूठे आश्वासन दिए। न तो भर्ती को पारदर्शी बनाने की कोशिश की गई, न ही भ्रष्ट अधिकारियों पर कोई सख्त कार्रवाई हुई। उल्टा, सत्ता में बैठे नेता एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप में उलझे रहे। विपक्ष और सत्ता दोनों की भूमिका पर सवाल उठते हैं, क्योंकि दोनों ने युवाओं के सपनों को राजनीति की भेंट चढ़ा दिया।
आज लाखों बेरोजगार युवा पूछ रहे हैं कि आखिर दोषियों को कब सजा मिलेगी? क्या उस पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को जिम्मेदार नहीं ठहराया जाना चाहिए, जिसके समय में यह गड़बड़ियाँ हुईं? क्या उन मंत्रियों और अधिकारियों पर मुकदमा नहीं चलना चाहिए जिन्होंने इस भ्रष्टाचार को जन्म दिया? यह केवल भर्ती रद्द करने भर से खत्म होने वाला मामला नहीं है। यह लोकतंत्र और प्रशासनिक ईमानदारी की परीक्षा है। अगर आज सख्ती नहीं दिखाई गई तो आने वाली पीढ़ियाँ भी यही भुगतेंगी।
इस पूरे प्रकरण में सबसे दुखद यह है कि युवाओं का विश्वास टूट गया है। बेरोजगारों के लिए एक सरकारी नौकरी जीवन बदलने वाली उपलब्धि होती है। परिवार अपना सबकुछ दांव पर लगाकर बच्चों को पढ़ाते हैं, वे उम्मीद करते हैं कि मेहनत रंग लाएगी, लेकिन जब मेहनत का फल भ्रष्टाचार की वजह से छिन जाता है तो वह केवल आर्थिक नुकसान नहीं होता, बल्कि मानसिक और सामाजिक त्रासदी भी होती है।
आज सैकड़ों परिवार सदमे में हैं। चयनित उम्मीदवार डबल बैंच में जाने की बात कर रहे हैं, दो साल से जूझ रहे आंदोलनकारी राहत की सांस ले रहे हैं और आम जनता ठगा महसूस कर रही है। युवाओं ने बार-बार सड़क पर उतरकर आवाज उठाई। सांसद हनुमान बेनीवाल के आव्हान पर 127 दिन तक आंदोलन चला, जयपुर के शहीद स्मारक पर धरने हुए, गिरफ्तारी दी गई, लाठियाँ खाईं गईं। लेकिन सरकार ने तब भी कोई निर्णय नहीं लिया। अगर हाईकोर्ट ने दखल नहीं दिया होता तो शायद यह भर्ती भ्रष्टाचार के बोझ तले दबा दी जाती। इसने साफ कर दिया कि सत्ता में बैठे लोगों के लिए युवाओं की मेहनत और जनता का पैसा मायने नहीं रखता, मायने रखता है केवल कुर्सी और उसका राजनीतिक संतुलन।
अब जबकि हाईकोर्ट ने भर्ती रद्द कर दी है, अगला सवाल है, क्या सरकार दोषियों पर केस दर्ज करेगी? क्या वे अधिकारी जो गड़बड़ी में शामिल थे, बर्खास्त होंगे? क्या उन मंत्रियों और नेताओं की जवाबदेही तय होगी, जिन्होंने इस भर्ती को भ्रष्टाचार की दलदल में धकेला? अगर ऐसा नहीं हुआ तो यह साफ संदेश जाएगा कि राजस्थान में भ्रष्टाचार करना कोई अपराध नहीं है, बल्कि यह सत्ता का खेल है, जिसमें पकड़े जाने पर भी केवल जनता को नुकसान होता है।
जरूरत है कि इस मामले में कड़ी से कड़ी कार्रवाई हो। पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से लेकर मौजूदा मुख्यमंत्री तक, सबको जवाब देना होगा। यह तर्क कि सरकार बदल गई और जिम्मेदारी खत्म हो गई, अब नहीं चलेगा। गुनहगार चाहे सत्ता में हों या विपक्ष में, उन्हें कानून के कठघरे में खड़ा करना ही होगा। और अगर ऐसा नहीं होता है तो यह माना जाएगा कि सरकार और पूरी राजनीतिक व्यवस्था युवाओं के खिलाफ खड़ी है। जनता का पैसा बर्बाद करने वाले अधिकारियों और नेताओं से वसूली होनी चाहिए। उन पर मुकदमा चलाकर सजा दी जानी चाहिए।
केवल भर्ती रद्द कर देना समस्या का समाधान नहीं है। जिन युवाओं ने दो साल ट्रेनिंग में बिताए, जिन परिवारों ने उम्मीदों के सपने देखे, जिन बेरोजगारों ने आंदोलन में जान की बाज़ी लगाई, उन सबका न्याय तभी होगा, जब दोषियों को सजा मिलेगी। राजस्थान का यह भर्ती घोटाला एक आईना है, जिसमें हम सबको देखना चाहिए। यह बताता है कि किस तरह से भ्रष्टाचार, मिलीभगत और सत्ता की नाकामी ने लाखों युवाओं के भविष्य को तबाह कर दिया। अगर अब भी कठोर कदम नहीं उठाए गए तो यह घोटाला आने वाली भर्तियों की नींव भी खोखली कर देगा और युवाओं का सिस्टम से विश्वास पूरी तरह खत्म हो जाएगा।
यह केवल एक भर्ती का मामला नहीं है, यह पूरी पीढ़ी के साथ हुआ विश्वासघात है। सत्ता चाहे किसी भी पार्टी की हो, अब जवाबदेही से बचना असंभव होना चाहिए। युवाओं ने अपना विश्वास खो दिया है, अब सरकार को साबित करना होगा कि वह केवल कुर्सी बचाने के लिए नहीं, बल्कि युवाओं के भविष्य और जनता की गाढ़ी कमाई की रक्षा के लिए भी प्रतिबद्ध है।
इस भर्ती का पूरा घटनाक्रम केवल एक भर्ती का मामला नहीं है, बल्कि यह एक ऐसा आईना है जिसमें हमारी पूरी व्यवस्था का असली चेहरा साफ झलकता है। यह कहानी बताती है कि किस तरह सत्ता और प्रशासन की मिलीभगत युवाओं की मेहनत पर भारी पड़ जाती है, किस तरह राजनीति के दबाव और भ्रष्टाचार की सड़ांध जनता के खून-पसीने की कमाई को निगल जाती है और किस तरह सरकारें युवाओं के भविष्य को रौंदकर केवल कुर्सी की राजनीति करती रहती हैं।
युवाओं के संघर्ष और उनके टूटे सपनों का दर्द इस बात से कहीं बड़ा है कि भर्ती रद्द हो गई। असल सवाल यह है कि क्या कभी गुनहगारों को सजा मिलेगी? क्या उस पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से सवाल नहीं पूछा जाएगा, जिसके समय में गड़बड़ियाँ हुईं? क्या मौजूदा मुख्यमंत्री भजन लाल शर्मा अपनी चुप्पी का जवाब देंगे कि आखिर 20 महीनों तक भर्ती रद्द क्यों नहीं की गई? और क्या उन अधिकारियों और मंत्रियों पर केस दर्ज होगा, जिन्होंने 202.38 करोड़ रुपये जनता की गाढ़ी कमाई को पानी की तरह बहा दिया?
अगर इन सवालों का जवाब नहीं मिला तो यह मान लेना चाहिए कि लोकतंत्र केवल राजनीतिक लोगों की सत्ता के लिए है, अधिकारियों के भ्रष्टाचार के लिए है, जनता के लिए नहीं। अगर दोषियों को बचाया गया तो यह संदेश जाएगा कि भ्रष्टाचार करना कोई अपराध नहीं, बल्कि सत्ता की गारंटी है और तब यह मान लेना होगा कि राजस्थान का युवा कभी भी इस व्यवस्था पर भरोसा नहीं करेगा। आज समय की मांग है कि सरकार चाहे किसी भी पार्टी की हो, विपक्ष चाहे जितना हो-हल्ला करे, सबको युवाओं के प्रति जवाबदेह बनना होगा।
युवाओं ने पढ़ाई में अपना खून-पसीना लगाया, परिवारों ने उम्मीदें पालीं, समाज ने सपने देखे, उन सबको न्याय तभी मिलेगा, जब दोषियों को सजा दी जाएगी और जनता के पैसों की भरपाई उन्हीं से करवाई जाएगी, जिन्होंने यह घोटाला किया। इतिहास गवाह है कि जब-जब युवाओं के साथ अन्याय हुआ है, तब-तब वह अन्याय सत्ता की जड़ों को हिला देता है। आज राजस्थान में भी वही समय आ चुका है। यह घोटाला केवल एक भर्ती का अंत नहीं, बल्कि जनता के धैर्य की सीमा का अंत भी है। अब आख़िरी सवाल सत्ता और विपक्ष दोनों से— क्या आप इस बार भी युवाओं को केवल वोट बैंक मानेंगे, या सचमुच उनके भविष्य और जनता की गाढ़ी कमाई की रक्षा करने की हिम्मत दिखाएँगे?
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