दोस्तों…राजस्थान की मिट्टी वीरों की धरती है। ये धरती बलिदान, त्याग और संघर्ष के लिए जानी जाती है। महाराणा प्रताप, पृथ्वीराज चौहान और महाराज सूरजमल जैसे योद्धाओं ने अपने रक्त से इसको सींचा और अपने जीते जी गुलामी की जंजीरों से बचाए रखा। ऐसे ही कई वीरों ने जीवन संघर्ष कर सदियों तक इस धरती को गुलामी से बचाए रखा, लेकिन आज यह धरती एक और संघर्ष कर रही है… जो है कर्ज़ के मकड़जाल का बेहद डरावना संघर्ष। इस संघर्ष के जनक यहां के नेता, अधिकारी और जिम्मेदार सरकारी कारिंदे हैं, जो जनता को झूठे झांसों में लेकर 25 साल से बेवकूफ बना रहे हैं।
इसी झूठ और भ्रष्टाचार के कारण राजस्थान सरकार पर आज 6 लाख करोड़ रुपये से ज़्यादा का कर्ज़ है। अगर इस बोझ को राजस्थान के हर नागरिक पर बांट दिया जाए, तो हर आदमी, हर औरत, हर बच्चा, सबके सिर पर औसतन 75 हज़ार रुपये से ज़्यादा का कर्ज़ चढ़ जाता है। ये कहानी सिर्फ़ आंकड़ों की नहीं है, ये कहानी है हमारी आने वाली पीढ़ियों की। वो पीढ़ियां, जिन्होंने अभी आंखें भी नहीं खोलीं, उनके माथे पर पहले से ही कर्ज़ की लकीरें लिख दी गई हैं। स्टेट जीडीपी के अनुपात में देखें तो कर्जा आज 37 फीसदी से भी अधिक हो चुका है। कर्ज के मामले में राजस्थान देश का सबसे बड़ा कर्जदार राज्य है। उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, महाराष्ट्र के बाद राजस्थान का ही नंबर आता है, जो सर्वाधिक कर्जदार है। राजस्थान सरकार ने 90 के दशक में लोन लेना शुरू किया था। उस दौर में सिर्फ़ योजनाओं और बुनियादी ढांचे के लिए ऋण लिया जाता था, लेकिन हालात बदले 2008 के बाद, जब केंद्र सरकार की नीतियों में राज्यों की हिस्सेदारी बदली और घाटा बढ़ने लगा और चुनाव जीतने के लिए अशोक गहलोत ने फ्री योजनाओं के लिए खजाना खाली करके लोन लेने रफ्तार पकड़ी।
अशोक गहलोत की सरकार हो या वसुंधरा राजे की, बीते 25 साल में दोनों ने ही कर्ज़ का ग्राफ़ ऊपर ही चढ़ाया और अब भजनलाल शर्मा की सरकार भी बहुत तेज गति से उसी रास्ते पर चल रही है। राजस्थान सरकार 90 के दशक कर्जा विकास कार्यों के लिए लेती थी, जिसके लंबे समय में रिटर्न मिलने से प्रदेश को फायदा होता था, लेकिन 2008 से 2013 की दूसरी अशोक गहलोत सरकार ने मुफ्त योजनाओं का पिटारा खोला और जनता को फ्री बांटकर चुनाव जीतने के लिए कर्जा लेना शुरू किया। इसके बाद चुनाव जीतने की मजबूरी में वसुंधरा राजे की दूसरी सरकार ने भी कर्जा लेकर फ्री रेवडियां बांटी, लेकिन फिर भी गहलोत सरकार के मुकाबले काफी कम खर्चा किया। 2018 में आई गहलोत की आखिरी सरकार ने प्रदेश को कर्ज के दलदल में ऐसा धकेला की अब संभवत: कभी नहीं उबर पाएगा। विपक्ष में रहते भाजपा ने गहलोत की इन फ्री योजनाओं का विरोध किया, लेकिन आज मजबूरीवश भाजपा को भी गहलोत के पद्चिन्हों पर चलते हुए सारी फ्री योजनाओं को चलाना पड़ रहा है। आज ये बोझ पहले से कहीं ज़्यादा खतरनाक हो चुका है। सरकार ने कर्ज़ के बदले में बैंकों को जयपुर में बने सरकारी कार्यालय परिसर, राजस्थान रोडवेज की ज़मीनें, जलदाय विभाग की संपत्तियां, और यहां तक कि खनन विभाग के राजस्व अधिकार भी गिरवी रख दिए हैं।
आज इन संपत्तियों का बाज़ार मूल्य 1.5 लाख करोड़ रुपये से भी ज़्यादा है, लेकिन ये सब बैंकों और वित्तीय संस्थाओं के पास गिरवी हैं। यानी जनता की ज़मीन… जनता की संपत्ति… सब गिरवी रख दी गई। अब सवाल है कर्ज़ का इस्तेमाल कहां हुआ? सरकार का दावा है विकास कार्यों में खर्चा किया जा रहा है, लेकिन हक़ीक़त ये है कि इसका बड़ा हिस्सा गया… कर्मचारियों की तनख्वाह में, रिटायर कर्मचारियों की पेंशन में, और घाटे में डूबी बिजली कंपनियों को बचाने में खर्च किया जा रहा है।
साल 2023-24 में ही सरकार ने बिजली कंपनियों को उबारने के लिए लगभग 22 हज़ार करोड़ रुपये झोंके हैं। सोचिए… अगर यही पैसा शिक्षा, स्वास्थ्य या रोज़गार में लगता, तो तस्वीर कितनी अलग होती। सबसे बड़ा झटका है ब्याज। सिर्फ़ ब्याज चुकाने में ही राजस्थान सरकार हर साल लगभग 45 हज़ार करोड़ रुपये खर्च कर देती है। यानी जनता का पैसा सीधे-सीधे बैंकों की जेब में चला जाता है। अब ज़रा तुलना कीजिए। देश में कर्ज़ के मामले में राजस्थान पांचवें स्थान पर है। महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु हमारे आगे हैं। लेकिन फर्क ये है कि इन राज्यों के पास कमाई के लिए उद्योग, बड़े टैक्स बेस हैं। राजस्थान के पास क्या है? रेत, खनन और अधिक से अधिक टूरिज़्म। और यही वजह है कि यहां का कर्ज़ और भी खतरनाक है। यहां एक और सच है। कर्ज़ लेना हमेशा कमजोरी नहीं होता। अगर आप कर्ज़ को सही जगह निवेश करें, तो उससे विकास होता है। लेकिन राजस्थान में ये कर्ज़… महज़ वोट बैंक की राजनीति का शिकार हो गया। मुफ्त योजनाएं, सब्सिडी, चुनावी वादे, ये सब कर्ज़ के पैसे से पूरे किए जाते रहे। अब ज़रा भविष्य देखिए। अगर यही रफ़्तार रही, तो 2030 तक राजस्थान का कर्ज़ 10 लाख करोड़ रुपये पार कर जाएगा। यानी हर इंसान पर 1 लाख रुपये से भी ज़्यादा का बोझ।
अब सवाल यह है इस कर्ज से मुक्ति कैसे मिलेगी? पहला राजस्व बढ़ाना हासिल किया जा सकता है, लेकिन इसके लिए उद्योग, निवेश और रोजगार का पूरा माहोल चाहिए।
दूसरा मार्ग फिजूलखर्ची रोकने से निकलता है, लेकिन राजनीतिक दलों के लिए ये आसान नहीं, क्योंकि उन्हें लगता है कि उनकी शुरू की गईं मुफ्त योजनाएं ही चुनाव जिताती हैं। तीसरा रास्ता केंद्र से विशेष आर्थिक पैकेज लेने का है, लेकिन ये तभी मिलेगा, जब राज्य की राजनीति दिल्ली को भरोसेमंद लगेगी। आज हालात यह हैं कि कर्ज़ का मर्ज़ राजस्थान की राजनीति की सबसे बड़ी बीमारी बन चुका है। जनता से वादे विकास के होते हैं, लेकिन सच्चाई ये है कि आने वाली पीढ़ियों की जेब पहले से ही खाली कर दी गई है। इसलिए अब असली सवाल यही है क्या कर्ज़ लेना सरकारों की मजबूरी है या फिर ये उनकी नीतिगत विफलता? क्या ये जनता से किया गया सबसे बड़ा धोखा नहीं है? राजस्थान का हर आदमी इस वक्त अपनी कमाई का हिस्सा अनजाने में ही इन सरकारों की विफलता के कारण कर्ज के रूप में चुका रहा है। "अगर यही हाल रहा… तो एक दिन राजस्थान की आने वाली पीढ़ियां पूछेंगी कि आपने हमको कर्ज दिया, आखिर हमारा गुनाह क्या था? और तब इस सवाल का जवाब न नेताओं के पास होगा… न सरकारों के पास।"
आज भजन लाल शर्मा की सरकार जिस तरह से अशोक गहलोत की योजनाओं को चलाने को मजबूर है, उससे साफ है कि इस सरकार के पास न विजन है, न योजना और न ही कर्ज के बोझ को कम करने की कोई नीति। बहुमत से बनी सरकार के मुखिया जब पर्ची से बनते हैं तो ऐसा ही परिणाम आता है। सीएम को किसी तरह की समझ, अनुभव या जानकारी नहीं होने के कारण प्रदेश के बदतर हालात को सुधारा नहीं जा सकता है। जब तक ठोस निर्णय करने वाली, फ्री योजनाओं को बंद करने की हिम्मत वाली और केंद्र सरकार के साथ बेहतर तालमेल के अलावा बाहरी निवेश को आकृषित करने वाली सरकार नहीं होगी, तब तक राजस्थान कर्ज के बोझ तले दबता चला जाएगा और एक दिन ऐसा आएगा, जब प्रदेश दिवालिया घोषित कर दिया जाएगा।
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