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नेपाल में जेन जेड आंदोलन: राजनीतिक भूकंप या विदेशी साजिश?

नेपाल की राजनीति एक बार फिर उथल-पुथल के दौर से गुजर रही है। सड़कों पर उतरते युवा, सोशल मीडिया पर ट्रेंड करते हैशटैग, काठमांडू की गलियों में नारों की गूंज और सत्ता के गलियारों में उठते सवाल—ये सब मिलकर आज एक ऐसा परिदृश्य बना चुके हैं जिसने पूरे देश की दिशा और दशा पर सवाल खड़े कर दिए हैं। जेन जेड आंदोलन केवल नेपाल की मौजूदा सरकार या उसकी नीतियों के खिलाफ गुस्से का इजहार नहीं है, बल्कि यह भविष्य की राजनीतिक व्यवस्था को तय करने वाली ताकत भी साबित हो सकता है।

आंदोलन की पृष्ठभूमि

नेपाल लंबे समय से राजनीतिक अस्थिरता का शिकार रहा है। 2008 में राजशाही खत्म हुई, 2015 में नया संविधान आया, लेकिन स्थिर लोकतंत्र की नींव कभी मजबूत नहीं हो पाई। लगातार बदलती सरकारें, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, महंगाई और युवाओं का पलायन इन सबने मिलकर नाराजगी का ज्वालामुखी तैयार किया। इसी पृष्ठभूमि में नई पीढ़ी, जिसे जेन जेड कहा जाता है, ने अपनी आवाज बुलंद की।

आंदोलन की शुरुआत

यह आंदोलन अचानक से नहीं हुआ। कुछ स्थानीय विश्वविद्यालयों के छात्रों ने भ्रष्टाचार और बढ़ती बेरोजगारी के खिलाफ विरोध जताया। देखते ही देखते इसने सोशल मीडिया पर वायरल होना शुरू किया और फिर पूरे देश में सड़कों पर उतरने का आह्वान किया गया। काठमांडू, पोखरा, बिराटनगर और ललितपुर जैसे शहरों में हजारों युवा इकठ्ठा होने लगे। खास बात यह रही कि आंदोलन का कोई स्पष्ट नेता शुरू में नहीं था, बल्कि यह सोशल मीडिया-आधारित विकेंद्रीकृत विरोध था, जिसने इसे और ज्यादा शक्तिशाली और अजेय बना दिया।

तीन चेहरों की चर्चा

आंदोलन की ताकत बढ़ने के साथ ही सत्ता परिवर्तन की चर्चा भी शुरू हो गई। अचानक तीन नाम सामने आए—काठमांडू के मेयर बालेंद्र शाह, पूर्व चीफ जस्टिस सुषिला कार्की और नेपाल इलेक्ट्रिसिटी अथॉरिटी के पूर्व प्रमुख कुलमान घिसिंग। ये तीनों नाम अलग-अलग वजहों से युवाओं के बीच लोकप्रिय रहे। शाह अपनी बेबाक छवि और एंटी-एस्टेब्लिशमेंट रुख के कारण, कार्की अपने न्यायिक साहस के चलते और घिसिंग बिजली संकट से नेपाल को निकालने की वजह से चर्चित रहे। लेकिन सवाल यह उठने लगा कि क्या यह आंदोलन इन तीनों में से किसी को अंतरिम प्रधानमंत्री बनाने की साजिश है या फिर यह केवल जनता की बेचैनी का विस्फोट है।

विदेशी ताकतों की भूमिका

नेपाल जैसे छोटे और भौगोलिक रूप से रणनीतिक देश में विदेशी ताकतों की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता। चीन, भारत और अमेरिका—तीनों का इस आंदोलन के संदर्भ में नाम लिया जा रहा है। कुछ लोग मानते हैं कि चीन नेपाल की स्थिरता को अपने आर्थिक हितों के हिसाब से प्रभावित करना चाहता है, वहीं भारत पर आरोप लगाया जाता है कि वह नेपाल में लोकतांत्रिक व्यवस्था के जरिए अपने राजनीतिक सहयोगियों को ताकतवर बनाए रखना चाहता है। दूसरी ओर, अमेरिका को लेकर यह धारणा है कि वह नेपाल को इंडो-पैसिफिक रणनीति में एक महत्वपूर्ण मोहरा बनाना चाहता है। आंदोलन की अचानक उग्रता और सोशल मीडिया पर पश्चिमी देशों से मिल रही सहानुभूति ने इस चर्चा को और हवा दी है कि क्या कहीं न कहीं डीप स्टेट की भी इसमें भूमिका है।

राजशाही और हिंदू राष्ट्र की बहस

आंदोलन का एक और दिलचस्प पहलू यह है कि इसके बीच में नेपाल में राजशाही की वापसी और हिंदू राष्ट्र की बहस फिर से तेज हो गई है। कई प्रदर्शनकारियों ने खुलकर कहा कि लोकतंत्र ने केवल अस्थिरता और भ्रष्टाचार दिया है, जबकि राजशाही के समय देश अपेक्षाकृत स्थिर था। साथ ही नेपाल को हिंदू राष्ट्र बनाने की मांग भी गूंजने लगी है। यह मुद्दा सीधे-सीधे भारत से जुड़ जाता है क्योंकि हिंदू राष्ट्र की बहस वहां भी संवेदनशील विषय रही है। हालांकि आंदोलन का मूल स्वरूप आर्थिक और सामाजिक मुद्दों पर केंद्रित है, लेकिन इस तरह की मांगें इसके भविष्य को एक अलग दिशा में मोड़ सकती हैं।

क्या नेपाल पटरी पर लौट पाएगा?

नेपाल का हाल यह है कि उसकी अर्थव्यवस्था पूरी तरह रेमिटेंस पर निर्भर है। लाखों युवा गल्फ देशों, भारत और यूरोप में काम कर रहे हैं। बेरोजगारी और महंगाई इतनी अधिक है कि हर साल हजारों लोग देश छोड़ने पर मजबूर हो रहे हैं। ऐसे में जेन जेड आंदोलन केवल राजनीतिक सत्ता परिवर्तन की मांग नहीं बल्कि आर्थिक सुधारों की पुकार भी है। सवाल यह है कि अगर यह आंदोलन सफल भी हो जाता है तो क्या नई व्यवस्था नेपाल को स्थिरता और समृद्धि दे पाएगी या फिर यह केवल एक और राजनीतिक प्रयोग बनकर रह जाएगा।

भविष्य की राह

सुप्रीम कोर्ट, संसद और सेना—ये तीन स्तंभ नेपाल की राजनीति में अहम भूमिका निभाते रहे हैं। आंदोलन की बढ़ती ताकत ने इन संस्थाओं को भी सतर्क कर दिया है। अगर यह आंदोलन केवल सोशल मीडिया तक सीमित रहा तो धीरे-धीरे कमजोर हो सकता है, लेकिन अगर यह संगठित राजनीतिक शक्ति में बदल गया तो यह नेपाल के भविष्य की राजनीति को पूरी तरह पलट सकता है। विदेशी ताकतों की भूमिका, आंतरिक सत्ता संघर्ष और जनता की वास्तविक मांगें—ये तीनों तय करेंगी कि नेपाल का कल किस ओर जाएगा।

नेपाल का जेन जेड आंदोलन एक चेतावनी है कि युवा अब चुप नहीं रहने वाले। यह केवल एक राजनीतिक बगावत नहीं बल्कि व्यवस्था से मोहभंग का परिणाम है। चाहे इसके पीछे विदेशी ताकतें हों या केवल आंतरिक असंतोष, एक बात साफ है कि नेपाल की राजनीति अब पहले जैसी नहीं रह पाएगी। सवाल यह है कि क्या नेपाल फिर से राजशाही या हिंदू राष्ट्र की ओर बढ़ेगा, या लोकतंत्र को एक नई परिभाषा देने में सफल होगा।

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