एल्गोरिदम (Algorithm) आज की डिजिटल दुनिया का सबसे चर्चित और रहस्यमय शब्द। आम आदमी के लिए यह महज़ एक तकनीकी टर्म लगता है, लेकिन असल में यही वो ताकत है, जो हमारे मोबाइल स्क्रीन से लेकर हमारे रोज़मर्रा के जीवन तक को प्रभावित कर रही है। जब भी हम गूगल पर सर्च करते हैं, फेसबुक (Facebook) या इंस्टाग्राम (Instagram) स्क्रॉल करते हैं, यूट्यूब (YouTube) पर वीडियो देखते हैं या फिर अमेज़न-फ्लिपकार्ट (Amazon-Flipchart ) पर शॉपिंग करते हैं, तब बिना जाने-समझे हम एल्गोरिदम (Algorithm) की दुनिया में जी रहे होते हैं। सवाल यह है कि एल्गोरिदम है क्या, यह कैसे काम करता है और क्या सोशल मीडिया (Social Media) कंपनियां इसके ज़रिए आम आदमी की सोच और सामान्य जीवन को अपने हिसाब से ढाल रही हैं?
एल्गोरिदम को सरल भाषा में समझें तो यह किसी काम को करने की तय की गई "स्टेप बाय स्टेप प्रक्रिया" है। जैसे हम किसी डिश को बनाने के लिए रेसिपी का पालन करते हैं, उसी तरह कंप्यूटर और मशीनें काम करने के लिए एल्गोरिदम का पालन करती हैं। जब भी हम सोशल मीडिया पर कोई पोस्ट लाइक करते हैं, कोई वीडियो देखते हैं या किसी कंटेंट को शेयर करते हैं, तब एल्गोरिदम हमारी पसंद और पैटर्न को नोट करता है।
इसके बाद वही पैटर्न आगे हमारे सामने बार-बार प्रस्तुत किया जाता है। यही कारण है कि अगर आप यूट्यूब पर एक क्रिकेट वीडियो देखते हैं तो आपके सामने तुरंत क्रिकेट से जुड़ी सैकड़ों वीडियो की कतार लग जाती है। अगर फेसबुक पर आप राजनीतिक पोस्ट पर लाइक करते हैं, तो आपको आगे राजनीतिक ही पोस्ट ज्यादा दिखाई देने लगती हैं। यह सब इसलिए होता है, क्योंकि एल्गोरिदम मान लेता है कि आपकी रुचि इसी क्षेत्र में है और उसी के अनुसार आपको कंटेंट परोसा जाता है।
लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं होती। असल दिक्कत यह है कि यह प्रक्रिया धीरे-धीरे हमारी सोच को सीमित कर देती है। उदाहरण के तौर पर, अगर आप बार-बार किसी एक विचारधारा से जुड़े कंटेंट को देखते हैं, तो सोशल मीडिया आपको उसी विचारधारा से जुड़े पोस्ट और वीडियो दिखाता रहता है।
इससे आप दूसरी विचारधाराओं से कट जाते हैं और आपको यह लगता है कि पूरी दुनिया उसी सोच के साथ खड़ी है, जिसे आप देख रहे हैं। इसे "इको चेंबर इफेक्ट" कहा जाता है। यानी आप एक डिजिटल बुलबुले में फंस जाते हैं, जहां बाहर की आवाज़ें आपके कान तक नहीं पहुंचतीं। आज की राजनीति में यह एल्गोरिदम बेहद ताकतवर हथियार बन चुका है।
चुनावों के समय राजनीतिक दल और उनके आईटी सेल एल्गोरिदम का इस्तेमाल करके तय करते हैं कि किसे क्या दिखाना है। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर टारगेटेड एड्स चलाए जाते हैं, जिनमें वही संदेश उन लोगों तक पहुँचाया जाता है, जो उस संदेश से प्रभावित होने की संभावना रखते हैं। यह प्रक्रिया इतनी बारीकी से होती है कि यूज़र को पता भी नहीं चलता कि उसकी सोच किस तरह से धीरे-धीरे बदली जा रही है।
अमेरिका में ट्रंप चुनाव से लेकर भारत में 2019 के आम चुनाव तक, कई बड़े उदाहरण हैं जहां सोशल मीडिया एल्गोरिदम का प्रभाव साफ देखा गया। कैम्ब्रिज एनालिटिका जैसे घोटाले सामने आए, जहां लाखों लोगों का डाटा एल्गोरिदम की मदद से चुनावी नतीजों को प्रभावित करने में इस्तेमाल किया गया। अब सवाल उठता है कि यह एल्गोरिदम कैसे तय करता है कि किसे क्या दिखाना है? असल में यह हमारे ऑनलाइन बिहेवियर यानी "डिजिटल फुटप्रिंट" पर आधारित होता है।
हम कौन सा वीडियो देखते हैं, किस पर कितना समय बिताते हैं, क्या लाइक करते हैं, क्या शेयर करते हैं, किस अकाउंट को फॉलो करते हैं—इन सभी गतिविधियों का डेटा इकट्ठा किया जाता है। इस डेटा के आधार पर एक "यूज़र प्रोफाइल" बनाई जाती है। फिर मशीन लर्निंग और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल करके एल्गोरिदम यह तय करता है कि हमें आगे क्या दिखाना है, ताकि हम प्लेटफॉर्म पर ज्यादा समय तक टिके रहें।
सोशल मीडिया कंपनियों का मुख्य उद्देश्य यही है कि हम जितना ज्यादा समय उनकी साइट पर बिताएँगे, उतना ही ज्यादा विज्ञापन वे हमें दिखा पाएंगे और उतना ही ज्यादा मुनाफा कमाएंगी। इसलिए वे लगातार हमारे दिमाग को व्यस्त रखने के लिए वही कंटेंट परोसती रहती हैं, जो हमें आकर्षित करे। यही कारण है कि कई बार हमें रात-रात भर इंस्टाग्राम या यूट्यूब स्क्रॉल करते हुए पता ही नहीं चलता कि वक्त कहाँ चला गया।
मगर इसका एक गहरा सामाजिक असर भी है। विशेषज्ञों का कहना है कि एल्गोरिदम न केवल हमारी पसंद को प्रभावित करता है, बल्कि हमारी सोच और राजनीतिक दृष्टिकोण तक को बदलने की क्षमता रखता है। इससे समाज में ध्रुवीकरण बढ़ रहा है। लोग अपनी-अपनी विचारधारा के "डिजिटल गैंग" में बंट रहे हैं। एक वर्ग को लगता है कि उसकी सोच ही सही है और दूसरा वर्ग गलत। इसका नतीजा यह होता है कि समाज में संवाद की जगह टकराव बढ़ने लगता है।
यही नहीं, एल्गोरिदम युवाओं की मानसिक सेहत पर भी असर डाल रहा है। इंस्टाग्राम और टिकटॉक जैसे प्लेटफॉर्म्स पर एल्गोरिदम युवाओं को ऐसे वीडियो दिखाते हैं जो उन्हें लंबे समय तक बांधे रखें। इसमें कई बार हानिकारक कंटेंट भी शामिल होता है। शोध बताते हैं कि इससे युवा डिप्रेशन, एंग्जायटी और अकेलेपन का शिकार हो रहे हैं।
भारत में भी हाल के वर्षों में देखा गया है कि कई दंगों और हिंसक घटनाओं की जड़ में सोशल मीडिया पर फैली अफवाहें और नफरती कंटेंट रहा। एल्गोरिदम ने इन कंटेंट्स को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँचाया, क्योंकि यह "एंगेजमेंट" पैदा कर रहा था। नतीजा यह हुआ कि समाज में तनाव और अविश्वास और गहराता गया।
प्रश्न यह उठता है कि क्या एल्गोरिदम पूरी तरह से बुरा है? इसका जवाब नहीं है। देखिए एल्गोरिदम का इस्तेमाल अगर जिम्मेदारी से किया जाए तो यह बेहद फायदेमंद हो सकता है। उदाहरण के लिए, यूट्यूब आपको पढ़ाई से जुड़े वीडियो सुझा सकता है, फेसबुक आपको आपके पुराने दोस्तों से जोड़ सकता है, गूगल आपको सही जानकारी तक पहुंचा सकता है। अमेज़न आपको आपकी ज़रूरत की चीज़ों के ऑफर दिखा सकता है। समस्या तब पैदा होती है, जब इसे केवल मुनाफा कमाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है और इसके जरिए लोगों की सोच और लोकतंत्र को प्रभावित किया जाता है।
तकनीकी विशेषज्ञों का कहना है कि अब समय आ गया है, जब सोशल मीडिया कंपनियों पर कड़े नियम लागू किए जाएं। सरकारों और नियामक संस्थाओं को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि एल्गोरिदम पारदर्शी हों और यूज़र को यह पता हो कि उसे जो कंटेंट दिखाया जा रहा है, वह क्यों दिखाया जा रहा है।
इसके अलावा लोगों को भी डिजिटल साक्षरता की ज़रूरत है, ताकि वे समझ सकें कि सोशल मीडिया पर दिखने वाली हर चीज़ सच नहीं होती और एल्गोरिदम के जरिए उन्हें किसी खास दिशा में धकेला जा रहा हो सकता है। आखिर में यही कहा जा सकता है कि एल्गोरिदम आधुनिक तकनीक का सबसे ताकतवर हथियार है, जो हमारे जीवन को आसान भी बना सकता है और मुश्किल भी।
यह हम पर निर्भर करता है कि हम इसे किस तरह इस्तेमाल होने देते हैं। सोशल मीडिया कंपनियों की जिम्मेदारी है कि वे एल्गोरिदम को इंसानियत और लोकतंत्र के खिलाफ हथियार न बनने दें, बल्कि इसे समाज के हित में ढालें। अगर ऐसा नहीं हुआ तो आने वाले समय में एल्गोरिदम न केवल हमारी सोच, बल्कि हमारी स्वतंत्रता और लोकतंत्र तक को निगल सकता है।
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