राजस्थान कांग्रेस अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा को अध्यक्ष बने पांच साल पूरे हो चुके हैं। अब उनके हटने और सचिन पायलट के अध्यक्ष बनने की चर्चा चल पड़ी है। कहा जा रहा है कि अगले दो महीनों में कभी भी पायलट को पीसीसी चीफ बनाया जा सकता है। लंबे समय से बिहार की सत्ता से बाहर कांग्रेस को बड़ा झटका लगा है, जहां अशोक गहलोत चुनाव प्रभारी बनाए गए थे।
गहलोत ने दावा किया था कि कांग्रेस वाली इंडिया गठबंधन की सरकार बनेगी, लेकिन फिर से बीजेपी वाली एनडीए सरकार ने प्रचंड़ बहुमत पाया है। अशोक गहलोत की सेहत पर इससे कितना असर पड़ेगा, यह तो आने वाला वक्त बताएगा, लेकिन गहलोत ने राजस्थान में खुद को मजबूत करने का प्रयास तेज कर दिया है। इस बीच तीन साल बाद चुनाव में मजबूती से मुकाबला करने के लिए सचिन पायलट को अध्यक्ष बनाने की चर्चा ने जोर पकड़ा है। इस चर्चा में कितना दम है, यह तो आना वाला समय ही बताएगा, लेकिन अशोक गहलोत ने जरूर चौथी पारी खेलने की तिकड़म बिठानी शुरू कर दी है।
दरअसल अशोक गहलोत सीएम पद के लिए हमेशा आमने-सामने की टक्कर रखना पसंद करते हैं, ताकि पार्टी को तीसरा विकल्प नहीं मिले। अशोक गहलोत की चौथी पारी में सबसे बड़ी बाधा सचिन पायलट हैं, तो तीसरा विकल्प गोविंद सिंह डोटासरा के रूप में खड़ा हो रहा है। और इस वजह से इस बार अशोक गहलोत के पहले निशाने पर पायलट के बजाए डोटासरा हैं। गहलोत को पता है सामने पायलट का पक्ष मजबूत है, लेकिन गहलोत राजनीति के जादूगर यूं ही नहीं कहे जाते।
दो साल पहले चुनाव हारकर सत्ता से बाहर होने के बाद लोगों ने अशोक गहलोत का चुका हुआ मान लिया, लेकिन ऐसे नासमझ लोग यह नहीं जानते कि गहलोत को राजनीति में कभी चुका हुआ नहीं मानना एक भूल होगी। एक कहावत है, जाट मरा तब जानिए, जब तेरहवीं होए। राजस्थान की सियासत में यह कहावत अशोक गहलोत पर फिट बैठती है। 2017 में गुजरात में चुनाव प्रभारी बने, तो जीतती सी नजर आ रही कांग्रेस विधानसभा का चुनाव हारी, बिहार चुनाव प्रभारी बने, कांग्रेस वहां अब तक की सबसे बुरी हालात में चली गई।
तीन बार राजस्थान के प्रभारी बनाए गए, लेकिन तीनों ही बार कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई। अशोक गहलोत की लीडरशिप में कांग्रेस हारती है। आज किसी भी तरह के राजनीतिक हालात होंगे, लेकिन सियासी चालों में अशोक गहलोत को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
राजनीतिक समीकरणों का बारीकी से अध्ययन करें तो समझ आता है कि चौथी पारी खेलने के लिए अशोक गहलोत क्या करने जा रहे हैं? बड़ी बात यह है कि अशोक गहलोत हर पांच साल में अपना निशाना और शिकार बदल लेते है। इस बार गहलोत का निशाना सचिन पायलट के बजाए गोविंद सिंह डोटासरा हैं।
अशोक गहलोत एक शिकार को एक ही बार निशाना बनाते हैं। अगला लक्ष्य लेकर शिकार भी ढूंढ लेते हैं। एक वीडियो में मैं पहले ही बता चुका हूं कि अब तक उन्होंने कैसे जगन्ननाथ पहाड़िया, हरिदेव जोशी, परसराम मदेरणा, सीपी जोशी, महिपाल मदेरणा, रामेश्वर डूडी, सचिन पायलट जैसों का सियासी शिकार करके कांग्रेस में अपनी बादशाहत कायम की है। इन तमाम नेताओं में केवल सीपी जोशी और सचिन पायलट ही जीवित हैं।
सीपी जोशी अब सियासी रूप से लगभग दम तोड़ चुके हैं, जबकि सचिन पायलट अपनी राजनीतिक पारी के चरम की तरफ बढ़ रहे हैं। फिर भी इस बार अशोक गहलोत के निशाने पर पायलट की बजाए पीसीसी चीफ गोविंद सिंह डोटासरा हैं। अब आप कहेंगे कि गहलोत के निशाने पर डोटासरा कैसे हैं? तो इसके लिए आपको बीते तीन दशक की गहलोत की स्टाइल को समझना होगा।
जगन्ननाथ पहाडिया से लेकर सचिन पायलट तक तमाम नेताओं को निपटाने की साजिश को समझिये। खासकर आपको परसराम मदेरणा से शुरू हुए गहलोत के सफर को समझना होगा। हालांकि, मैंने पहले एक वीडियो में बहुत कुछ समझाया है, लेकिन एक बार फिर से आपको थोड़ी गहराई से समझाने का प्रयास करता हूं।
आपको यह चीज तो पता ही है कि 1998 में कांग्रेस पार्टी ने चुनाव लड़ा था, तब अशोक गहलोत पीसीसी चीफ थे, लेकिन आप में से कम ही लोगों को पता होगा कि उस चुनाव में कांग्रेस ने परसराम मदेरणा का चेहरा आगे कर चुनाव लड़ा था।
जैसे मान लीजिए आज पीसीसी चीफ गोविंद सिंह डोटासरा हैं, लेकिन जब चुनाव आएंगे तब कांग्रेस की ओर से लगभग किसी भी एक व्यक्ति के चेहरे पर चुनाव में उतरा जाएगा। उसमें गहलोत भी हो सकते हैं, पायलट भी हो सकते हैं और डोटासरा भी हो सकते हैं, लेकिन चुनाव परिणाम के बाद कौन क्या खेल कर सकता है, यही समीकरण सीएम का नाम तय करेगा।
ऐसे ही 27 साल पहले परसराम मदेरणा सीएम के चेहरा थे, लेकिन अशोक गहलोत ने मदेरणा के सिद्धांतों का फायदा उठाया, गांधी परिवार के मुंह लगे होने का लाभ उठाया, मीडिया से दोस्ती को यूज किया और सीएम बनकर सियासी जादूगर बन गए। ये बात खुद गहलोत ने कई बार कही है कि उनको सोनिया गांधी ने ही तीन बार सीएम बनाया है।
इससे साफ होता है कि तब सोनिया गांधी ने गहलोत का चुना था, न कि विधायक दल ने। विधायक दल तो परसराम मदेरणा के नाम पर एकमत था, लेकिन सोनिया गांधी ने आदेश जारी किया और सभी कांग्रेस चुप हो गए। यहां तक कि गांधी परिवार के प्रति अपनी वफादारी को पुख्ता करते हुए परसराम मदेरणा भी अपमान का घूंट पी गए।
इसके 10 साल बाद 2008 में गहलोत ने दूसरी तरह से जादू किया। इस बार उन्होंने गांधी परिवार के बजाए अपने विरोधियों की कमजोरी को टारगेट किया। अशोक गहलोत पीसीसी चीफ होते सीएम बने थे तो यह परंपरा मान ली गई कि जो अध्यक्ष होगा, जीतने पर वही सीएम बनेगा। तब सीपी जोशी अध्यक्ष थे, गहलोत की पहली पारी से कांग्रेसी भी खुश नहीं थे, सब यही सोच रहे थे कि सीएम बदला ही जाएगा।
ऐसे में गहलोत ने अपनी जादूगरी ग्रांउड पर दिखाई। कहा जाता है कि सीपी जोशी हजारों वोटों से जीत रहे थे, लेकिन कांग्रेस के ही कुछ लोगों ने नाथद्वारा में सीपी जोशी के खिलाफ जमकर प्रचार किया, जिसका नतीजा एक जोशी की एक वोट से हार के रूप में परिणाम सामने आया। चुनाव हारते ही जोशी सीएम की रेस से बाहर हो गए। ऐसे में शीशराम ओला और महिपाल मदेरणा की चुनौती के अलावा ग्रांउड क्लियर था।
समस्या केवल एक ही थी कि पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला था। जरूरी 101 की जगह केवल 96 सीटें जीत पाई थी। गहलोत ने सोनिया गांधी को अपने अनुभव और बहुमत जुटाने का वादा किया, जिससे सहमत होकर सोनिया गांधी ने विधायकों की पसंद जाने बिना ही गहलोत को दूसरी बार सीएम बना दिया। गहलोत ने बसपा के सभी 6 विधायकों को कांग्रेस में शामिल कर लिया।
सीटें 101 हो गईं, लेकिन गहलोत सरकार की नाकामी और महिपाल मदेरणा का बढ़ता कद चिंता बन गया था। उसी समय भंवरीदेवी का अपहरण कर हत्या करने का मामला सामने आया। इसका आरोप अश्लील सीढ़ी में मौजूद महिपाल मदेरणा, कांग्रेस विधायक मलखान सिंह विश्नोई जैसे नेताओं पर लगा। चारों तरफ से घिरे गहलोत ने इस मौके का फायदा उठाया और मामले की जांच सीबीआई को सौंप दी। सीबीआई ने महिपाल मदेरणा को गिरफ्तार कर लिया। इस तरह से गहलोत की दूसरी पारी का कांटा भी निकल गया।
सरकार की भयंकर विफलता के कारण जनता ने 2013 में कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया। इस बार गहलोत ने सीएम रहते हार का ऐसा रिकॉर्ड बनाया, जो अब तक कायम है। पार्टी 21 सीटों पर सिमट गई भाजपा 163 सीटों के साथ प्रचंड़ बहुमत में आई। ऐसे लगा मानो कांग्रेस मुक्त राजस्थान हो जाएगा। कांग्रेस की कमान राहुल गांधी के हाथ में आ गई, तो उन्होंंने अपने युवा टीम बनानी शुरू की।
राजस्थान में अपने साथी 34 वर्षीय युवा सचिन पायलट को कमान सौंप दी। जनवरी 2014 में पायलट ने ज्वाइन किया और कांग्रेस में जान आई। पायलट और रामेश्वर डूडी ने कांग्रेस को फिर से जिंदा किया। जो कांग्रेस डूब सी गई थी वो 2018 में फिर से जिंदा हो गई और सत्ता में लौट आई। गहलोत ने सियासी समीकरण ऐसा फिट किया कि रामेश्वर डूडी चुनाव हारकर तीसरे विकल्प की संभावना से बाहर हो गए।
विधानसभा चुनाव की इस जीत में अशोक गहलोत की रत्तीभर भी भूमिका नहीं थी, लेकिन जब सीएम बनने की बारी आई तो गहलोत ने सियासी चाल चल दी। लोकसभा चुनाव नजदीक थे और अशोक गहलोत जैसे भुगते हुए कांग्रेसियों ने राहुल गांधी को पीएम बनने का सपना दिखा दिया। सोनिया गांधी ने पुत्रमोह में आकर अशोक गहलोत को तीसरी बार सीएम बना दिया।
इसके बाद संग्राम पांच साल चला। शुरुआती डेढ साल शीतयुद्ध चला। एक को सीएम बने रहना था तो पायलट को सीएम बनना था। गहलोत जैसे रणनीतिक योद्धा के सामने पायलट के लिए सीएम की सीट तक चढने वाली यह सीढ़ी बहुत मुश्किल थी, लेकिन फिर भी इस हाईपावर सीट के लिए दो सियासी योद्धाओं के बीच करारी जंग चल रही थी।
जुलाई तक इस जंग को बेहद कम लोगों को पता था, लेकिन 11 जुलाई 2020 के दिन अचानक अपने साथ 18 अन्य विधायकों के समर्थन का दावा करते हुए सचिन पायलट ने बगावत कर दी। इसके बाद पायलट ने समर्थक विधायकों के साथ गुरुग्राम के एक रिसॉर्ट में डेरा डाला। पायलट ने खुले तौर पर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के नेतृत्व वाली सरकार को अल्पमत में लाने का ऐलान किया था।
एक महीने तक ड्रामा चला, जो राजस्थान में कभी नहीं चला था। आखिर 34 दिन बाद प्रियंका गांधी वाड्रा ने जल्द ही सचिन पायलट को सीएम बनाने का वादा कर बीच—बचाव किया। सरकार बहुमत में आई और पायलट अपने साथियों के साथ वापस लौट आए। उन्होंने फिर 11 मई 2022 तक इंतजार किया, लेकिन कुछ नहीं हुआ। पायलट ने एक दिन का अनशन किया, तीन दिन की अजमेर से जयपुर तक की यात्रा की, तब जाकर कांग्रेस आलाकमान ने उनकी सुध लेनी चाही। 25 सितंबर 2022 को विधायक दल की बैठक बुलाई गई।
सोनिया गांधी ने मल्लिकार्जुन खड़गे और अजय माकन को जयपुर भेजा, इसकी जानकारी मिलते ही अशोक गहलोत बीकानेर माता के दर्शन करने चले गए और पीछे से शांति धारीवाल, महेश जोशी जैसे नेताओं को कमान सौंप गए। धारीवाल ने अपने आवास पर विधायकों को बुलाया और 91 का इस्तीफा लेकर सीपी जोशी से मिले। जो विधायक सीएम आवास पर विधायक दल की बैठक में जाने थे और सीपी जोशी के पास चले गए। सीएम आवास में खड़गे, माकन और सचिन पायलट समेत उनके गुट के विधायक इंतजार करते रह गए।
गहलोत गुट के नहीं आने से नाराज होकर खड़गे और माकन दिल्ली लौट गए। गांधी परिवार को समझ आ चुका था कि गहलोत ने अंतिम हथियार चला दिया है। अशोक गहलोत की जिद, रणनीति, जादूगरी और चतुराई के आगे सोनिया गांधी ने भी अपने सियासी समर्पन कर दिया। उन्हें अपने फेसले से पीछे हटना पड़ा और इसके साथ ही सचिन पायलट का सीएम बनने का सपना भी टूट गया। इसके बाद गहलोत ने पूरे पांच साल का शासन पूरा किया, लेकिन तब से पायलट 'सीएम इन वेटिंग' ही हैं।
दो साल से कांग्रेस सत्ता में नहीं है, लेकिन गहलोत चुप रहने वाले नहीं हैं। इस बार उनके माथे पर गांधी परिवार का वफादार नहीं होने का दाग है, तो साथ ही सचिन पायलट, गोविंद सिंह डोटासरा, टीकाराम जूली जैसे नेताओं से निपटने की चुनौती भी है। टीकाराम जूली को अशोक गहलोत ने ही नेता प्रतिपक्ष बनवाया है। जैसे डोटासरा को अध्यक्ष बनाया था, लेकिन समय बदलता है तो अर्जन जैसा सबसे सक्षम शिष्य ही द्रोणाचार्य का वध करता है।
लगातार चुनाव हार रही कांग्रेस पार्टी के भीतर भी परिस्थितियां तेजी से बदल रही हैं। राजनीति में समय के साथ वफदारियां भी बदल जाती हैं और फिर सीएम की कुर्सी किसे अच्छी नहीं लगती? आज भजनलाल शर्मा सीएम हैं, जो कभी वसुंधरा राजे से मिलने तक को तरस जाते थे। वसुंधरा राजे आज सीएम बनने को तड़प रही हैं, लेकिन उनकी ईच्छा के लिए भजनलाल अपनी सीट थोड़े ही छोड़ देंगे।
समय आएगा, जब डोटासरा और जूली जैसे किसी नेता के सामने भी यही परिस्थिति बनेगी और गहलोत अच्छे से जानते हैं कि उनके लिए उनका बनाया हुआ कोई नेता सीएम की कुर्सी छोड़ने को तैयार नहीं होगा। ऐसी तमाम स्थितियों और समय के साथ बदलती वफादारियों वालीा सियासी चालाकियों में गहलोत से ज्यादा ज्ञानी कौन होगा? इसलिए गहलोत अभी से धीरे—धीरे अपने विरोधियों को किनारे करने में जुटे हैं।
इस सूची में सबसे बड़े दावेदार और पावरफुल भले ही पायलट हों, लेकिन गहलोत की लिस्ट में अभी डोटासरा पहले स्थान पर हैं। डोटासरा जैसे उभरती हुई चुनौतियों को समय रहते निपटाकर पायलट से गहलोत को अंतिम समय 'वन टू वन' मुकाबला करना है। इस वजह से अपनी बढ़ती लोकप्रियता, समर्थकों के उकसावे, गुब्बारे की तरह खुद के अंदर हवा भरकर फूटने को तैयार रहने के बजाए 2028 के चुनाव से पहले डोटासरा को अपनी लक्ष्मणगढ़ सीट को अभेद किले में बदलना होगा।
डोटासरा को कांग्रेस में मदेरणा और डूडी के बाद किसान वर्ग में सबसे बड़ी उम्मीद के रूप में देखा जा रहा है, जो सीएम की कुर्सी तक पहुंच सकते हैं। किंतु उन्हें इसके लिए गहलोत जैसी पहाड़ सी चुनौती को पार करना होगा, जो बेहद कठिन है, दुष्कर है, आज की कांग्रेस में लगभग असंभव ही है।
पेपर लीक और शिक्षकों के ट्रांसफर में पैसे लेने जैसे आरोपों के कारण सत्ता में रहते भाजपा के निशाने पर रहे डोटासरा के लिए गहलोत ने कोई हथियार तैयार कर लिया होगा और या तैयारी चल रही होगी। डोटासरा को भी उसी स्तर का सुरक्षा कवच बनाना होगा, जो गहलोत के हथियारों से मुकाबला कर पाए।
Post a Comment