अमेरिका बना भारत का नंबर एक कारोबारी पार्टनर

Ram Gopal Jat
भारत अब दुनिया में बहुत तेजी से आगे बढ़ रहा है। अमेरिका ने चीन को पछाड़कर भारत का नंबर एक साझेदार बनने का रुतबा हासिल किया है। भले ही भारत व रूस के बीच पुरानी मित्रता के दम पर रूस यूक्रेन युद्ध के समय भारत ने यूएन में भी अमेरिका के कहे अनुसार यूक्रेन के बजाये रूस का साथ दिया हो, किंतु फिर भी भारत सरकार की सफलता यह है कि आज अमेरिका के साथ भारत का कारोबार सर्वाधिक हो गया है। इससे भी अधिक संतोष की बात यह है कि अमेरिका के साथ भारत कारोबारी फायदे में है। इस कारोबारी युद्ध में अमेरिका ने चीन को पीछे छोड़कर कैसे भारत का नंबर एक सहयोगी बनने का गौरव पाया है, लेकिन उससे पहले जान लीजिये कि भारत की पिछले दो दशक की कारोबारी यात्रा कैसी रही है?
आठ साल पहले भारत में आज ही के दिन नरेंद्र मोदी ने सरकार ने केंद्र की सत्ता में कदम रखा था। उससे पहले करीब एक दशक तक भारत का दुनिया से कनेक्शन लगभग कटा हुआ दिखाई देता था। विश्व के विकसित देशों की नजर में भारत एक सपेरों का देश था, तो विकासशील देश भारत से लगभग कटे हुये से रहते थे, जबकि दुनिया के गरीब देशों को संकट के समय भारत से सहयोग की कोई उम्मीद दिखाई नहीं देती थी। साल 2004 में जब एनडीए की सरकार सत्ता से बेदखल हुई तो भारत में अगले 10 साल तक एक ऐसे नीरश दौर की शुरुआत हुई, जिसमें विदेश नीति मृतप्राय: दिखाई देती थी। उससे पहले अपने सवा 6 साल के कार्यकाल में तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी सरकार द्वारा किये गये परमाणु परीक्षण की नाराजगी के बावजूद ​दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश अमेरिका से लेकर पुराने मित्र रूस तक से अनैक समझौते हुये और संबंध आगे बढ़ते रहे।
8 वर्ष पूर्व मोदी सरकार ने सत्ता में मिलते ही सबसे पहले अपने ​पडोसी देशों और दुनिया के तमाम छोटे बड़े देशों के साथ द्विपीक्षय संबंधों को मजबूत करने का काम किया। सउदी अरब से लेकर अमेरिका और रूस से लेकर जापान तक से भारत ने गहरे संबंध बनाये। भारत ने पाकिस्तान और चीन तक को भी अच्छे पड़ोसी की तरह बर्ताव करने और अच्छे रिश्ते कायम करने के लिए आगे बढ़कर प्रस्ताव दिया, लेकिन दोनों ही देशों ने अपनी हरकतों को नहीं छोड़ा, नतीजा यह हुआ कि मोदी की पहली सरकार में पाकिस्तान से रिलेशन कंप्लीट समाप्त कर दिये तो आज चीन फिर से भारत के साथ कारोबार को बढ़ावा देने के लिए छटपटाने लगा है। मोदी की पहली सरकार के समय मेक इन इंडिया और दूसरी सरकार में आत्मनिर्भर भारत अभियान ने किसी देश को सबसे अधिक नुकसान किया है, तो वह चीन ही है।
वर्ष 1991 के बाद भारत सरकार ने उदारीकरण का दौर शुरू किया था, जिसका किसी ने सबसे अधिक फायदा उठाया तो वह था चीन। उससे पहले भारत में विदेशी सामान मुख्यत: ब्रिटेन व जापान से ही आयात किये जाते थे। खासकर इलेक्ट्रोनिक्स के मामले में भारत पूरी तरह से इन्हीं दो देशों पर निर्भर था। लेकिन पीवी नरसिंम्हा राव की सरकार ने उदारीकरण को अपनाकर चीन के लिए भारत का मार्केट खोल दिया। परिणाम यह हुआ कि आज तक भी भारत सर्वाधिक सामान चीन से ही आयात कर रहा है। उदारीकरण के दौरान भारत की सरकारों ने आयात का मार्ग तो खोल दिया, लेकिन उत्पादन करने को लेकर पूरी तरह से निर्जीव साबित हुईं। मनमोहन सिंह के वित्त मंत्री रहते उदारीकरण शुरू हुआ, लेकिन मनमोहन सिंह के 10 साल प्रधानमंत्री रहते ही भारत के दुनिया के साथ रिश्ते सर्वाधिक खराब दौर से गुजरे। हालांकि, कांग्रेस पार्टी के चीन के साथ व्यक्तिगत एग्रीमेंट के कारण चीन से आयात बढ़ता रहा। एक तरह से मनमोहन सरकार ने भारत को चीन का आयातक बनाकर छोड़ दिया गया।
इसके बाद वर्ष 2014 में नरेंद्र मोदी भाजपा को मिले पूर्ण ​बहुमत के साथ पहले गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने। उन्होंने ना केवल दुनिया के छोटे बड़े देशों के साथ अच्छे रिश्ते बनाये, बल्कि कारोबार को लेकर भी रणनीतिक तरीके से काम किया। आज भारत दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, तो सैन्य खर्च के साथ तीसरी सबसे बड़ी ताकत बन चुका है। इस दौर में भारत ने चीन से आयात निर्भरता को कम करने के लिए मेक इन इंडिया शुरू किया, तो दो साल पहले आत्मनिर्भर भारत अभियान शुरू कर चीन को करारा झटका दिया। हालांकि, भारत का चीन के साथ कारोबार फिर भी सर्वाधिक रहा, जिसमें भारत का व्यापार घाटा भी रहा, लेकिन अब ताजा आंकड़ों ने सबको चौंका दिया है।
अमेरिका 2021-22 में भारत का सबसे बड़ा कारोबारी साझेदार बन गया है, उससे पहले लंबे समय तक चीन सबसे बड़ा ट्रेडिंग पार्टनर था। यह भारत अमेरिका के बीच मजबूत आर्थिक संबंधों को दर्शाता है। ट्रेड एक्सपर्ट्स का मानना ​​है कि आने वाले वर्षों में भी अमेरिका के साथ द्विपक्षीय कारोबार बढ़ने का सिलसिला जारी रहेगा, क्योंकि भारत और अमेरिका अपने द्विपक्षीय आर्थिक संबंधों को और मजबूत करने में लगे हैं। भारत सरकार के वाणिज्य मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक 2021-22 में अमेरिका और भारत के बीच 119.42 अरब डॉलर का द्विपक्षीय व्यापार रहा है, जबकि वर्ष 2020-21 में यह 80.51 अरब डॉलर था। अमेरिका को भारत का निर्यात 2021-22 में बढ़कर 76.11 अरब डॉलर हो गया, जो पिछले वित्त वर्ष में 51.62 अरब डॉलर था। इसी तरह से भारत को अमेरिका से आयात भी बढ़ा है। वर्ष 2020-21 में अमेरिका से भारत को आयात 29 अरब डॉलर की तुलना में इस वर्ष बढ़कर 43.31 अरब डॉलर हो गया।
इधर, साल 2021-22 के दौरान चीन के साथ भारत का द्विपक्षीय व्यापार 115.42 अरब डॉलर हो गया है, जो 2020-21 में 86.4 अरब डॉलर था। चीन को भारत ने वर्ष 2020-21 में 21.18 अरब डॉलर का निर्यात किया, जबकि उससे पहले पिछले वित्त वर्ष में 21.25 अरब डॉलर था। इसी तरह से 2021-22 में चीन से आयात 65.21 अरब डॉलर से बढ़कर 94.16 अरब डॉलर हो गया। वर्ष 2021-22 में ट्रेड गैप बढ़कर 72.91 अरब डॉलर हो गया, जो पिछले वित्त वर्ष में 44 अरब डॉलर था, यानी भारत को करीब 73 अरब डॉलर का व्यापार घाटा है। फेडरेशन ऑफ इंडियन एक्सपोर्ट आर्गनाइजेशन का मानना है कि दुनिया में भारत एक विश्वसनीय कारोबारी साझेदार के रूप में उभर रहा है। अब तक जो ग्लोबल कंपनियां अपनी सप्लाई के लिए चीन पर निर्भर थीं, वो चीन से निर्भरता कम कर रही हैं और भारत जैसे अन्य देशों में कारोबार का विस्तार कर रही हैं। इसी का नतीजा है कि कोरोना काल में कई ग्लोबल कंपनियों ने चीन से कारोबार समेटकर भारत में शुरू कर दिया है। आने वाले वर्षों में भारत और अमेरिका के बीच द्विपक्षीय व्यापार बढ़ता रहेगा। भारत पिछले दिनों ही अमेरिका द्वारा प्रस्तावित इंडो-पैसिफिक इकोनॉमिक फ्रेमवर्क में शामिल हुआ है। भारत के इस कदम से अमेरिका, जापान, ओस्ट्रेलिया समेत अन्य 9 देशों के साथ आर्थिक संबंधों को बढ़ाने में मदद मिलेगी। इससे भी अधिक खुशी की बात यह है कि अमेरिका उन कुछ देशों में से एक है, जिनके साथ भारत का ट्रेड सरप्लस, यानी भारत कारोबारी फायदे में है। वर्ष 2021-22 में भारत का अमेरिका के साथ 32.8 अरब डॉलर का ट्रेड सरप्लस रहा है। जब मोदी सरकार सत्ता में आई थी, तब साल 2013-14 से 2017-18 तक और 2020-21 में भी भारत का टॉप ट्रेड पार्टनर चीन था।
चीन से पहले संयुक्त अरब अमीरात भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार था। साल 2021-22 में 72.9 अरब डॉलर के साथ संयुक्त अरब अमीरात भारत का तीसरा सबसे बड़ा ट्रेड पार्टनर रहा है। इसके बाद सऊदी अरब 42.85 अरब डॉलर, इराक 34.33 अरब डॉलर और सिंगापुर 30 अरब डॉलर का स्थान आता है। इनमें से अधिकांश देशों के साथ भारत का तेल व प्राकृतिक गैस के कारण इतना कारोबार होता है। इन सभी दशों के साथ भारत का करेंसी स्वेप अरेंजमेंट है, जिसके कारण डॉलर या यूरो पर निर्भर नहीं रहना पड़ता है। करेंसी स्वेप अरेंजमेंट का मतलब यह होता कि भारत इन देशों के साथ आपसी मुद्रा में ही कारोबार करता है, जिसके कारण दोनों देशों के व्यापारिक संबंध मजबूत होते हैं। सीएसए में ज्यादातर तेल बेचने वाले देश हैं। अग्रणी तेल निर्यातक देशों में अंगोला, अल्जीरिया, नाइजीरिया, ईरान, इराक, ओमान, कतर, वेनेजुएला, सऊदी अरब और यमन जैसे देश हैं, जिसके साथ भारत का सीएसए है। कुछ ऐसे देश भी हैं, जिनके साथ तेल निर्यात का संबंध नहीं है, लेकिन भारत का उनके उनके साथ सीएसए है। इन देशों में जापान, रूस, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया जैसे देश हैं। इसके अलावा सिंगापुर, इंडोनेशिया, मलेशिया, मैक्सिको, दक्षिण अफ्रीका और थाइलैंड भी हैं जिनके साथ सीएसए है।
भारत अमेरिका के साथ भी सीएसए चाहता है, किंतु अभी तक इस समझौते पर बात नहीं बनी है। भारत का यदि अमेरिका के साथ सीएसए होता है तो रुपया मजबूत होगा और भारत का विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ेगा। इधर, चीन काफी समय से भारत के साथ सीएसए समझौता करने को तड़प रहा है, लेकिन भारत सरकार ने सुरक्षा कारणों से अनुमति नहीं दी है। चीन का कहना है कि भारत उसके साथ सीएसए समझौता करता है, तो उसके यहां पर चीनी पर्यटकों की संख्या तेजी से बढ़ेगी, लेकिन भारत को पता है कि चीन इस समझौते की आड़ में क्या खेल करना चाहता है।

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