इसराइल—हमास युद्ध की जड़ क्या है और भारत किसके साथ खड़ा है?



दुनिया एक बार फिर से विश्व युद्ध के साए में जी रही है। सभी 57 इस्लामिक देशों को आव्हान करते हुए ईरान ने कहा है कि इजराइल के ऊपर सभी तरह के प्रतिबंध लगाने चाहिए। एक दिन पहले गाजा के सबसे बड़े अस्पताल पर रॉकेट गिराने के कारण उपचार करवा रहे 500 से 800 लोगों की मौत हो गई। इसके अलावा सैकड़ों घायल हो गए। अब तक यह माना जा रहा था कि युद्ध के दौरान कोई भी देश किसी अस्पताल पर हमला नहीं करेगा, लेकिन इस धारणा को भी ध्वस्त कर दिया गया है। फिलिस्तीन समेत अधिकांश मुस्लिम देशों का आरोप है कि यह हमला इजराइल ने किया है, जबकि इजराइल ने कहा है कि हमास के द्वारा मिसफायर किया गया है, यानी हमास के आतंकी इजरायल पर रॉकेट से हमला कर रहे थे, लेकिन वह अपने ही अस्पताल पर गिर गई और यह भयानक हादसा हो गया।

दोनों तरफ से आरोप—प्रत्यारोप का दौर चल रहा है, लेकिन मानवता का विनाश हो रहा है। दुनिया पहले ही रूस यूक्रेन युद्ध के चलते सकते में थी, अब इजरायल और फिलिस्तीन के युद्ध ने विश्व समुदाय की और चिंता बढ़ा दी है। चिंता का कारण यह है कि इस युद्ध में ईरान जैसे कुछ ऐसे देश भी शामिल हो सकते हैं, जिनके पास परमाणु बम हैं और इनके शासक तानाशाही माने जाते हैं। अवैध रूप से परमाणु बम बनाने के मामले में ईरान पर अमेरिका ने पहले ही प्रतिबंध लगा रखे हैं। ऐसे में ईरान की एक भी गलत हरकत इस युद्ध में अमेरिका को उतार सकती है।

इस युद्ध में एक तरफ इजराइल के साथ अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, इटली, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया जैसे तकरीबन सभी पश्चिमी देश हैं, जो दूसरी ओर फिलिस्तीन की तरफ इस्लामिक कंट्री लामबंद हो रहे हैं। यहां तक की पाकिस्तान जैसा कंगाल देश भी युद्ध की धमकियां दे रहा है, जैसा वो हमेशा करता रहा है। भारत फिलिस्तीन को अलग देश के रूप में मान्यता देता है, लेकिन इजराइल पर हुए हमले की कड़ी निंदा की है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत सरकार का पक्ष स्पष्ट करते हुए इजराइल के साथ खड़े होने का ऐलान किया है। 24 फरवरी 2022 से रूस और यूक्रेन के बीच भी युद्ध चल रहा है, लेकिन बीते पौने दो साल में इस तरह से विश्व के ताकतवर देशों को दो तरफ खड़े होकर लड़ते नहीं देखा था। रूस यूक्रेन युद्ध को आजतक दुनिया ने युद्ध माना भी नहीं है। हालांकि, सब कुछ युद्ध जैसा ही हो रहा था, लेकिन फिर भी दुनिया के किसी देश ने इसे युद्ध नहीं कहा। पश्चिमी देश इसको रूस की घुसपैठ कह रहे हैं तो रूसी समर्थक अभियान बोलते हैं।

इधर, इजराइल फिलिस्तीन के बीच चल रहे इस युद्ध को पहले ही दिन इजराइल ने युद्ध घोषित कर दिया था। साथ ही यह भी दावा किया था कि इस बार 'हमास' को पूरी तरह से खत्म किये बिना युद्ध समाप्त नहीं होगा। इस युद्ध को 12 दिन बीत चुके हैं, इस दौरान हजारों लोगों की जान जा चुकी है। मरने वालों की वास्तविक संख्या इसलिए पता नहीं है, क्योंकि गाजा पट्टी में अब तक कितने लोग मरे हैं, इसकी पूरी जानकारी खुद फिलिस्तीन को भी नहीं है। आज से ठीक 13 दिन पहले फिलिस्तीन के आतंकी संगठन 'हमास' ने रात को अचानक हमला करके इजराइल को हिलाकर रख दिया।

'हमास' ने जश्न में डूबे इजराइल पर अचानक 5000 रॉकेट्स से हमला किया। जिसमें सैकड़ों लोगों की जान चली गई। इसके बाद 'हमास' के आतंकियों ने सैकड़ों यहूदियों को पकड़ लिया, जिनको सुरंगों में बंदी बना रखा है। इस हमले में ना केवल इजरायल के लोग मरे, बल्कि अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस जैसे कई देशों के नागरिक भी मारे गए। परिणाम यह हुआ कि सोया हुआ इजराइल नाम शेर भड़क गया। 7 अक्टूबर को इजराइल पर 50 साल बाद इतना बड़ा हमला हुआ था। इससे पहले साल 1973 में सीरिया और मिस्र ने ऐसा ही हमला किया था, उसमें भी इजरायल को ढाई हजार सैनिक खोने पड़े थे। कहा जाता है कि उस समय भी अधिकांश इस्लामिक देश इजराइल के खिलाफ युद्ध में शामिल हो गए थे, लेकिन अंत में सभी अरब देशों की हार हुई और इजरायल की विजय हुई। उस जंग को योम किप्पुर युद्ध के नाम से जाना जाता है। उस युद्ध में विजय के बाद इजरायल को भौगोलिक रूप से भी फायदा हुआ।

जो अब तक मैंने आपको बताया, वो सब कुछ आप टीवी या अखबारों के माध्यम से देख और सुन चुके होंगे, लेकिन आप में से शायद अधिकांश लोग यह नहीं जानते होंगे कि इजरायल और फिलिस्तीन के इस युद्ध की असली कहानी 106 साल पुरानी है, जिसको समझे बिना इस युद्ध का कौन दोषी है निर्दोष कौन, इसे नहीं समझा जा सकता है। आप वीडियो को अंत तक देखेंगे तो समझ जाएंगे कि युद्ध का वास्तविक गुनहगार कौन है?

सबसे पहले आप इस युद्धक्षेत्र की भौगोलिक स्थिति को समझ लिजिए, जिससे पूरी कहानी समझने में आसानी रहेगी। माना जाता है कि दोनों देशों के बीच संघर्ष की जड़ जेरूसलम शहर है, जिस पर दोनों अपना अपना हक जताते हैं। यहां पर इस्लामी आस्था के सबसे पवित्र स्थलों में से एक बताया जाता है, जिसे मुस्लिम हरम अल-शरीफ और यहूदी ‘टेम्पल माउंट’ कहते हैं। कहा जाता है कि मक्का मदीना के बाद दुनिया के मुस्लिम इसी जगह को सबसे पवित्र मानते हैं। यह स्थल यरूशलेम के पुराने शहर का अंग है। इसी को यहूदी भी अपना सबसे पवित्र स्थान मानते हैं। यहूदियों का कहना है कि मुस्लिमों के पास मक्का मदीना है, लेकिन उनके लिए तो दुनिया में केवल यही एक धार्मिक स्थान है। इसी तरह से शेख जर्राह पूर्वी यरुशलम के पुराने शहर के उत्तरी पड़ोस में स्थित है। वर्ष 1948 में जब ऐतिहासिक फिलिस्तीनी भूभाग में इजरायल राज्य की स्थापना की गई तो लाखों फिलिस्तीनियों को उनके घरों से बेदखल कर दिया गया। उन फिलिस्तीनी परिवारों में से 28 परिवार पूर्वी येरुशलम के शेख जर्राह में जाकर बस गए। इसी तरह से आप यदि इजराइल के नक्से के बीच में देखेंगे तो एक भू भाग दिखाई देता है, जिसे वेस्ट बैंक कहते हैं। इसके पश्चिमी में मृत सागर का एक बड़ा भाग भी शामिल है। 1948 के अरब-इज़राइल युद्ध के बाद इस पर जॉर्डन ने कब्ज़ा कर लिया था, लेकिन वर्ष 1967 के छह-दिवसीय युद्ध के दौरान इज़राइल ने इसे वापस छीन लिया और तब से इस पर नियंत्रण रखता है। वेस्ट बैंक इज़राइल और जॉर्डन के बीच स्थित है। इस समय गाजा पट्टी का नाम आप खूब सुन रहे होंगे। गाजा पट्टी इज़राइल और मिस्र के बीच स्थित है। इज़राइल ने वर्ष 1967 के बाद इस पट्टी पर कब्ज़ा कर लिया था, लेकिन ओस्लो शांति संधि के दौरान गाजा शहर के अधिकांश भूभाग छोड़ दिया था। वर्ष 2005 में इज़राइल ने बिना किसी विवाद के इस भूभाग से यहूदी बस्तियों को हटा लिया, हालांकि इसने यहां तक अपनी अंतर्राष्ट्रीय पहुंच बना रखी है। इसी क्षेत्र में गोलन हाइट्स एक रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण पठार है, जिसे इजराइल ने वर्ष 1967 के युद्ध में सीरिया से जीत लिया था। इजराइल ने वर्ष 1981 में इस क्षेत्र पर प्रभावी रूप से कब्ज़ा कर लिया। वर्ष 2017 में संयुक्त राज्य अमेरिका ने आधिकारिक तौर पर यरुशलम और गोलन हाइट्स को इजराइल के अंग के रूप में मान्यता प्रदान कर दी।

अब आप इस युद्ध की जड़ को समझिए। दोनों पक्षों के बीच इस संघर्ष की उत्पत्ति 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी के आरंभ से हुई थी, जब फिलिस्तीन में यहूदियों के आप्रवासन, यानी माइग्रेशन में तेजी से वृद्धि हुई, जिससे यहूदियों और यहां पहले से अधिक मात्रा में निवास करने वाली अरब आबादी के बीच तनाव उत्पन्न होने लगा। इससे पहले यहूदी यूरोप के विभिन्न देशों में रहते थे। उसके करीब 300 से 700 साल पहले यहूदी यहां के निवासी माने थे, लेकिन जब ओटोमन साम्राज्य में उन पर अत्याचार होने लगे तो अपना देश छोड़कर वो यूरोप में माइग्रेंट हो गए। यूरोप में यहूदियों को बाहरी कहा जाता था, जिसके कारण जर्मन तानाशाह हिटलर ने भी लाखों यहूदियों का कत्लेआम किया था।

प्रथम विश्व युद्ध के बाद यहूदी बड़ी तादाद में यूरोप छोड़कर अमेरिका, ब्रिटेन, दक्षिण अमेरिका, फ्रांस और फलस्तीन की ओर जाने लगे। यहूदियों के पलायन में सबसे बड़ा इजाफा तब हुआ, जब एडोल्फ हिटलर 1933 में जर्मनी का तानाशाह बना। उसके शासनकाल में यहूदियों पर इतना ज्यादा अत्याचार बढ़ा कि उन्हें मजबूरन अपना देश छोड़कर भागना पड़ा। ज्यादातर यहूदियों ने इजराइल आने का फैसला किया, क्योंकि वो इसको अपनी पवित्र धार्मिक मातृभूमि कहते थे। हिटलर के दौर में 6 साल के दौरान 60 लाख यहूदियों को मौत के घाट उतारा गया था। एक वक्त यहां पोलैंड, जर्मनी से लेकर फ्रांस तक में यहूदियों की अच्छी खासी आबादी थी, जहां से यहूदियों को भागना पड़ा। इसकी मुख्य वजह हिटलर ही था। साल 1922-26 में करीब 75 हजार यहूदी फलस्तीन पहुंचे, जबकि 1935 में यहां जाने वाले यहूदियों की संख्या 60 हजार थी। युद्ध खत्म होने के बाद यूरोप में जितने भी यहूदी बचे थे, उन्होंने अपने लिए नया देश बनाने के लिए फलस्तीन जाना शुरू किया।

कहा जाता है कि बीते 300 साल में दुनिया के विभिन्न देशों में 27 करोड़ यहूदियों का मारा गया है। वर्ष 1917 में प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सरकार ने बाल्फोर घोषणा पत्र, यानी Balfour Declaration जारी किया था, जिसमें फिलिस्तीन में ‘यहूदी लोगों के लिये राष्ट्रीय गृह’ की स्थापना की गई। यानी तब से यहूदियों के लिए फिलिस्तीन ही अपना घर होगा। परिणाम यह हुआ कि यहां के अरब निवासी इसका खुलकर विरोध करने लगे। इसके बाद दोनों पक्षों के बीच संघर्ष का एक लंबा दौर चला। करीब 30 साल बाद द्वितीय विश्व युद्ध के उपरांत वर्ष 1947 में संयुक्त राष्ट्र ने दोनों के बीच एक विभाजन योजना का प्रस्ताव रखा था, जो फिलिस्तीन को दो अलग-अलग यहूदी और अरब राज्यों में विभाजित करता था। इस समझौते में यरूशलेम को एक अंतरराष्ट्रीय शहर का दर्जा दिया गया। इस योजना को यहूदी नेताओं ने तो स्वीकार कर लिया था, लेकिन अरब नेताओं ने इसे अस्वीकार कर दिया, जिससे इस देश में हिंसा भड़क उठी।

एक साल बाद 14 मई 1948 को इजराइल ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी, जिससे पड़ोसी अरब राज्यों के साथ उसका युद्ध शुरू हो गया। जैसे ही इजराइल की तरफ से ऐसा किया गया, वैसे ही फलस्तीन की तरफ से मिस्र, जॉर्डन, सीरिया और इराक ने इस इलाके पर धावा बोल दिया। इसे ही पहले इजराइल-फलस्तीन संघर्ष के तौर पर जाना जाता है। इस जंग के बाद अरबों के लिए अलग जमीन तय की गई। मगर युद्ध की वजह से 7.5 लाख यहूदी बेघर हो गए।

फलस्तीन के लिए लड़ने वाले मुल्कों को जब हार मिली, तो इसकी वजह से अरबों के हाथ फलस्तीन के लिए छोटी जमीन का हिस्सा हाथ लगा। अरबों को जो जमीन हाथ लगी, उसे वेस्ट बैंक और गाजा कहा गया। इन दोनों जगहों के बीच में इजराइल आता था। इस युद्ध के बाद यरुशलम शहर को पूर्व और पश्चिम में बांट दिया गया। पश्चिम पर इजराइल का कब्जा था, जबकि पूर्व में जॉर्डन के सुरक्षाबल तैनात थे। ये सब बिना किसी शांति समझौते के हो रहा था।

साल 1967 में एक बार फिर फलस्तीन और इजरायल के बीच युद्ध हुआ, लेकिन इस बार इजरायल ने और भी ज्यादा आक्रामक प्रहार किया और फलस्तीन के एक बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया। उसने वेस्ट बैंक और गाजा दोनों पर कब्जा जमाया। गाजा स्ट्रिप को तो उसने बाद में छोड़ दिया, मगर वेस्ट बैंक को अपने कंट्रोल में ही रखा। ऊपर से पूर्वी यरुशलम भी इजरायल के कंट्रोल में आ गया। फलस्तीन लोग अब वेस्ट बैंक और गाजा स्ट्रिप में ही रहते हैं।

इस संघर्ष के परिणामस्वरूप हज़ारों फिलिस्तीनियों का दूसरे देशों में विस्थापन हुआ, यानी फिलिस्तीन यहां से भागने लगे और यहीं से आज के तनाव की नींव पड़ी। वैसे तो इज़राइल-हमास संघर्ष के वर्तमान स्वरूप के बीज 1980 के दशक के उत्तरार्द्ध में देखे जा सकते हैं, जब पहला इंतिफादा, यानी फिलिस्तीनी विद्रोह भड़क उठा था। इसी अवधि में एक इस्लामी संगठन ‘हमास’ का उदय हुआ। इसने जल्द ही इजराइली कब्ज़े और फिलिस्तीनी के राजनीतिक संगठन ‘फतह’ के विरुद्ध संघर्ष हुआ। इस मारकाट वाले संघर्ष के बाद हमास को फिलिस्तीन के लोगों ने अपना सुरक्षा संगठन मान लिया।

इजराइल ने आरंभ में तो ‘फतह’ के खिलाफ संतुलनकारी शक्ति के रूप ‘हमास’ के अस्तित्व को बर्दाश्त किया, लेकिन फिलिस्तीन में जैसे-जैसे हमास का प्रभाव बढ़ता गया, वैसे—वैसे ही इज़राइल के दृष्टिकोण में भी परिवर्तन आने लगा। 1990 के दशक के आरंभ में ओस्लो समझौते से फिलिस्तीनी प्राधिकरण की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हुआ और वेस्ट बैंक एवं गाजा पट्टी के कुछ क्षेत्रों से इज़राइल की आंशिक वापसी हुई। हालांकि, आगे चलकर यह शांति प्रक्रिया रुक गई, जिससे हिंसा फैल गई। इसकी परिणामस्वरूप दूसरा इंतिफ़ादा, यानी फिलिस्तीनी विद्रोह हुआ, जो 2000-2005 तक चला। इस दौरान हमास ने इज़राइली नागरिकों के विरुद्ध आत्मघाती बमबारी और रॉकेट हमले किये, जिसके जवाब में फिलिस्तीन को अपने सैकड़ों नागरिकों की मौत के रूप में कीमत चुकानी पड़ी।

वर्ष 2006 में फिलिस्तीनी विधायी चुनाव में हमास की जीत हुई, जिससे फतह के प्रभुत्व वाले फिलिस्तीन प्राधिकरण के साथ तनाव बढ़ गया। वर्ष 2007 में हमास ने बलपूर्वक गाजा पट्टी पर कब्ज़ा कर लिया, जबकि वेस्ट बैंक पर फतह का नियंत्रण बना रहा। इज़राइल ने हथियारों की तस्करी और हमलों को रोकने के लिये गाजा की नाकेबंदी कर रखी है, जिसने गाजा के निवासियों के लिये आर्थिक कठिनाइयां पैदा कर रखी हैं।इसी का परिणाम है कि इज़राइल और हमास के बीच बार-बार गंभीर झड़पों की स्थिति बनी है, जिनमें ऑपरेशन कास्ट लीड, 2008-2009, ऑपरेशन पिलर ऑफ डिफेंस, 2012 और ऑपरेशन प्रोटेक्टिव एज, 2014 शामिल हैं। इन संघर्षों के परिणामस्वरूप दोनों पक्षों को भारी हानि उठानी पड़ी है।

मोटो तौर पर देखें तो बीते 106 साल के इतिहास में यहूदियों ने लगातार अपने देश का दायरा बढ़ाया तो उनको वापस भगाने का दावा करने वाले अरबों के पराजय ही हाथ लगी। ब्रिटेन शुरू से ही इजराइल के साथ रहा है, जबकि बीते कुछ दशकों से ब्रिटेन के कमजोर होने और अमेरिका के लगातार मजबूत होने के कारण आज इजराइल का सबसे मजबूत सहयोगी अमेरिका ने ही बना है। इस युद्ध के शुरू होने के बाद 12वें दिन ही अमेरिकी राष्ट्रपति का तेल अवीव पहुंचना इस बात का पुख्ता सबूत है कि यदि इस बार अरब देशों ने फिर से इजरायल पर हमला किया तो अमेरिका सीधे युद्ध में कूद जाएगा, जो एक और विश्वयुद्ध के दौर में प्रवेश करने का आधार तैयार होगा। ईरान दुनिया में मुस्लिम देशों को खलीफा बनने के लिए अगुवा बनकर धमकियां तो दे रहा है, लेकिन अमेरिका के डर से वह आगे नहीं बढ़ पा रहा है, बल्कि सभी इस्लामिक देशों को उकसा कर हमला करने को कह रहा है। इससे ईरान के दो मकसद हल होंगे। यदि युद्ध में मुस्लिम देश जीत जाते हैं तो ईरान इस युद्ध के परिणाम को अमेरिका पर विजय के रूप में प्रचारित करेगा, तो साथ ही युद्ध के बाद वह खुद को इस्लामिक देशों का खलीफा घोषित कर देगा।

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