फौजमार कप्तान तो अशोक गहलोत हैं!

राजस्थान की राजनीति में अशोक गहलोत का नाम चतुराई, रणनीति और सत्ता संतुलन के पर्याय के रूप में लिया जाता है। चार दशकों से कांग्रेस पार्टी में सक्रिय रहते हुए, उन्होंने न केवल तीन बार मुख्यमंत्री पद संभाला, बल्कि हर बार अपनी राजनीतिक सूझबूझ से पार्टी और सरकार को संकटों से उबारा। हाल ही में राजीव गांधी की पुण्यतिथि पर आयोजित एक सभा में गहलोत ने 2020 के मानेसर राजनीतिक संकट का उल्लेख करते हुए गोविंद सिंह डोटासरा को उस संकट की 'देन' बताया, जिससे पार्टी के अंदरूनी मतभेद एक बार फिर उजागर हो गए।

जुलाई 2020 में तत्कालीन उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट और उनके समर्थक विधायकों ने अशोक गहलोत के नेतृत्व के खिलाफ बगावत कर दी थी। इस राजनीतिक संकट के दौरान पायलट को उपमुख्यमंत्री और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद से हटा दिया गया और गोविंद सिंह डोटासरा को प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त किया गया। गहलोत ने इस संकट को 'चमत्कार' बताते हुए कहा कि हाईकमान का आशीर्वाद और जनता की दुआओं से ही उनकी सरकार पांच साल पूरा कर सकी। 

गहलोत की राजनीतिक शैली में विरोधियों को चतुराई से किनारे करना और अपने समर्थकों को महत्वपूर्ण पदों पर स्थापित करना शामिल है। उन्होंने परसराम मदेरणा, शीशराम ओला, सीपी जोशी जैसे दिग्गज नेताओं को भी मात दी है। अब गोविंद सिंह डोटासरा और टीकाराम जूली जैसे नेता उनके निशाने पर हैं, जिनके कद को कम करने के लिए गहलोत अपनी रणनीतियों का इस्तेमाल कर सकते हैं। 

सचिन पायलट, जो अब भी राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के करीबी माने जाते हैं, पार्टी में अपनी स्थिति मजबूत करने के प्रयास में हैं। गहलोत की हालिया टिप्पणियों से यह स्पष्ट होता है कि वे पायलट को एक बार फिर से चुनौती देने के लिए तैयार हैं। हालांकि, पायलट खेमा अब भी सक्रिय है और पार्टी में अपनी भूमिका को पुनः स्थापित करने की कोशिश कर रहा है।

गोविंद सिंह डोटासरा, जो 2020 के संकट के बाद प्रदेश अध्यक्ष बने, अब गहलोत के निशाने पर हैं। उनकी नियुक्ति पार्टी के 'उदयपुर नव संकल्प' घोषणा के विपरीत है, जो एक पद पर तीन साल की सीमा तय करती है। टीकाराम जूली, नेता प्रतिपक्ष के रूप में, विधानसभा में कांग्रेस की मौजूदगी को मजबूती से दर्ज करा रहे हैं, लेकिन गहलोत के साथ उनके संबंधों में तनाव की खबरें भी सामने आ रही हैं। 

गहलोत ने 2020 के संकट के दौरान भाजपा पर सरकार गिराने की साजिश का आरोप लगाया था। उन्होंने कहा था कि भाजपा छह महीने से साजिश कर रही थी, और मजबूरी में आकर कांग्रेस ने अपने तीन साथियों को हटाया। गहलोत ने यह भी आरोप लगाया कि केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत और सचिन पायलट मिलकर सरकार गिराने की साजिश में शामिल थे। 

बाद में ये सब बातें मिथ्या साबित हुईं और अशोक गहलोत की पोल उनके ही ओएसडी रहे लोकेश शर्मा ने खोली। लोकेश ने साफ तौर पर कहा कि गहलोत ने ही उनको फोन रिकॉर्डिंग की सीडी दी थी, जिसको मीडिया में सर्कुलेट करना था। गहलोत उनके बॉस थे, इसलिए उनको ये सब करना पड़ा। उल्लेखनीय यह भी है कि लोकेश ने गहलोत की चालों को भांपते हुए पहले से तैयारी कर रखी थी। 

लोकेश के खुलासों के कारण वर्तमान सीएम के ओएसडी जैसे सहयोगियों पर सरकार भरोसा नहीं कर पा रही है। बीते दो दशक में सीएम के सलाहकार का मूल्य बेहद निम्न स्तर पर पहुंच चुका है, जिसका सबसे बड़ा कारण लोकेश शर्मा हैं। सीएम चाहे कैसा भी काम कर रहा हो, लेकिन जब तक सहयोगी विश्वनीय नहीं होंगे, तब तक कोई मूल्य नहीं रह जाता है।

राजस्थान में आगामी विधानसभा चुनाव को देखते हुए, कांग्रेस को एकजुट होकर आगे बढ़ने की आवश्यकता है। गहलोत का 'जादू' अब भी कायम है, लेकिन पार्टी के भीतर बढ़ते मतभेद और आंतरिक कलह चुनावी संभावनाओं को प्रभावित कर सकते हैं। पार्टी को चाहिए कि वह आंतरिक मतभेदों को सुलझाकर एक मजबूत रणनीति के साथ चुनावी मैदान में उतरे। अशोक गहलोत की राजनीतिक यात्रा चतुराई, रणनीति और सत्ता संतुलन का उदाहरण है, जिसे उनके समर्थक जादूगरी कहते हैं। 

उन्होंने पार्टी के भीतर और बाहर दोनों स्तरों पर अपने विरोधियों को मात दी है। हालांकि, पार्टी के भीतर बढ़ते मतभेद और आगामी चुनावों की तैयारी को देखते हुए, कांग्रेस को एकजुट होकर आगे बढ़ने की आवश्यकता है। 

अन्यथा, आंतरिक कलह पार्टी की चुनावी संभावनाओं को प्रभावित कर सकती है। भले ही आज राजस्थान में जो भाजपा की सरकार है, वो बेहद कमजोर हो, लेकिन इतना तय है कि जिस तरह के हालात कांग्रेस पार्टी के गहलोत गुट ने कर रखे हैं, उसके कारण जनता खुद ही कांग्रेस को सत्ता नहीं सौंपेगी।

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