मोदी सरकार और काशी विश्वनाथ मंदिर विवाद का सच क्या है?

देश में इन दिनों एक बार फिर से राम मंदिर की तरह धार्मिक मुद्दा जोर पकड़ रहा है। इसको लेकर दो पक्ष हैं, जो कोर्ट की शरण में हैं और कोर्ट के आदेश पर ही विवादित स्थान के सर्वे का काम किया गया है। किंतु इसी सर्वे के दौरान कुछ ऐसा हुआ है, जिसको लेकर देशभर की जिज्ञासा और बढ़ गई है। दोनों पक्षों के अपने—अपने दावे हैं, और अपनी—अपनी दलीलें। हालांकि, मामला कोर्ट में है, इसलिए इसको लेकर कोई भी व्यक्ति अपना मत नहीं रख सकता है, लेकिन विवाद के प्रकरण की जड़ तक जाने के लिए खोजबीन करना कोर्ट की अवमानना नहीं होती है। पिछले एक सप्ताह से चल रही इस खींचतान और राजनीतिक बयानबाजी के बीच कुछ चीजें हैं, जो जनता को जानना बहुत जरुरी है, इसी को लेकर आज हम बात करेंगे। कुछ लोगों को दावा है​ कि भाजपा की नरेंद्र मोदी सरकार एक एजेंडे के तहत ये सब कर रही है, या करवा रही है। मामला निचली अदालतों से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक चल रहा है और जैसा कि भारत में आजकल अपने मनमर्जी के फैसले नहीं होने पर आसानी से आरोप लगा दिया जाता है कि सरकार ने कोर्ट से यह करवाया है। कई मामले ऐसे हैं, जो बीते आठ साल में केंद्र सरकार की मर्जी के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों द्वारा दिए गए निर्णयों के कारण दिक्कतें पैदा कर चुके हैं, लेकिन देश में एक धारणा बनाई जा रही है कि कोर्ट भी वही करता है, जो सरकारें चाहती हैं। जब सुप्रीम कोर्ट से 9 नवंबर 2019 को राम मंदिर का निर्णय आया था, तब भी इसी तरह के आरोप कुछ लोगों ने लगाए थे और उसक बाद जब तत्कालीन सीजेआई रंजन गोगोई को भाजपा की ओर से राज्यसभा सदस्य बनाया गया, तब ये आरोप और ज्यादा पुख्ता तरीके से लगाए गये। किंतु आरोप लगाने वाले भूल जाते हैं कि सरकारी दबाव की दुहाई देते हुए जिन 4 जजों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी, उनमें रंजन गोगोई भी एक थे। सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में पहली बार 12 जनवरी 2018 को रंजन गोगोई सहित सर्वोच्च न्यायालय के चार जजों ने संयुक्त रूप से एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के तौर-तरीकों को लेकर सार्वजनिक तौर पर सवाल खड़े किए थे। किंतु उन्हीं दीपक मिश्रा के एससी—एसटी मामले को लेकर दिए गये एक जजमेंट के चलते केंद्र सरकार को बैकफुट पर आकर कानून बनाना पड़ा था। उसके बाद राम मंदिर का निर्णय आया, जिसमें एक जज मुस्लिम थे, और तीनों ही जजों की बैंच ने एक स्वर में अपना फैसला सुनाया था। नतीजा यह हुआ कि करीब 550 साल पुराने विवाद का निपटारा हुआ, जो 134 साल से कोर्ट में चल रहा था और आज अयोध्या में राम मंदिर बन रहा है। आयोध्या में राम मंदिर तोड़कर बाबर के सिपहसालार मीर बाकी ने 1528 में बाबरी मस्जिद बनवाई थी। काशी और मथुरा में औरंगजेब ने मंदिर तुड़वाकर वहां शाही ईदगाह मस्जिद बनवाई। इतना ही नहीं, उस आक्रांता ने साल 1670 में मथुरा में भगवा केशवदेव का मंदिर तोड़ने का फरमान जारी किया था। औरंगजेब ने 1669 में काशी में विश्वनाथ मंदिर तुड़वाया और ज्ञानवापी मस्जिद बनवाई। इसके प्रमाण भी इससे मिलते हैं कि खुद औरंगजेब के द्वारा उस समय प्रतिदिन मंदिर तोड़ने के आदेश जारी किए जाते थे और खुद को तुर्की के खलीफा का प्रतिनिधि समझकर अपने कुकर्त्यों की संख्या का पैगाम तुर्क भेजा जाता है। इतिहास के पन्नों में यह बात दर्ज है कि मुगलों में औरंगजेब सबसे अधिक धर्मांध था, जो सीधे तौर पर भारत में खलीफा का शासन स्थापित करना चाहता था, जिसके लिए वह पूरे हिंदूओं को समाप्त कर मुस्लिम बनाना चाहता था। इन्हीं में से एक मुद्दा दिन दिनों चल रहा है बाबा भोलेनाथ की नगरी काशी का, जहां पर हिंदू पक्ष के अनुसार राम मंदिर की तरह ही मुगल आक्रांता औरंगजेब ने मंदिर को तोड़कर उसकी जगह मस्जिद बना दी थी। यह मामला भी भाजपा की बरसों पुरानी सूची में है, जिसको पूरा करने की परिकल्पना दशकों पहले की गई थी। वाराणसी कोर्ट के आदेश पर ज्ञानवापी मस्जिद का सर्वे पूरा हो चुका है और बीच हिन्दू पक्ष के अनुसार वजु करने के स्थान पर शिवलिंग मिला है। सर्वे के दौरान 12 फीट 8 इंच लम्बा शिवलिंग नंदी के ठीक सामने पाया गया है। सर्वे के दौरान वजु कुण्ड को खाली किया गया, तब शिवलिंग दिखा। मुस्लिम पक्ष ने कहना है कि शिवलिंग शिवलिंग जैसी कोई चीज नहीं मिली है, जिसे ये लोग शिवलिंग कह रहे हैं, वो फव्वारे का एक हिस्सा है। ये फव्वारा 10 साल पहले तक काम करता था लेकिन अभी ये ख़राब है, उस वजु स्थल पर उसके बाद से पानी डाल दिया गया है, ताकि नमाजियों को कोई दिक्कत न हो। हिंदू पक्ष की याचिका के बाद कोर्ट ने इस जगह को सील कर दिया है और वहां की पूरी सुरक्षा सीआरपीएफ को सौंप दी गई है, ताकि जगह के साथ कोई छेड़छाड़ न की जाए। वाराणसी के कलेक्टर कौशल राज शर्मा ने मीडिया को बताया कि जांच आयोग के किसी भी सदस्य ने ज्ञानवापी मस्जिद के सर्वेक्षण के ब्योरे का खुलासा नहीं किया, कहीं भी कोई नारा नहीं लगाया गया है, यदि किसी ने सर्वे के बारे में कोई बात बताई है, तो ये उनके निजी विचार हैं। न्यायालय सर्वे के बारे में जानकारी का संरक्षक है। कोर्ट में जांच कमीशन अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करेगा और फिर कोर्ट उसपर फैसला सुनाएगा। देखने वाली बात यह है कि कोर्ट के द्वारा नियुक्त तीनों कमिश्नर अपनी रिपोर्ट में अलग अलग मत रखते हैं या फिर सबकी फाइंडिंग एक रहेगी। इस मंदिर—मस्जिद की लड़ाई भले ही जिला कोर्ट में चल रही हो, लेकिन क्या कोई भी अदालत राम मंदिर के अलावा कोई निर्णय दे सकती है? क्योंकि अदालत का काम कानून के अनुसार न्याय करना होता है, जबकि कानून बनाने का काम संसद व विधानसभाएं करती हैं। यही वह बात है, जो दोनों पक्षों को अपने—अपने तर्क देने को मजबूर कर रही है। असल में सुप्रीम कोर्ट में ज्ञानवापी मस्जिद परिसर में वाराणसी जिला अदालत के वीडियोग्राफी के सर्वे के खिलाफ याचिका पर सुनवाई है। यह याचिका सुप्रीम कोर्ट में ज्ञानवापी मस्जिद की प्रबंधक कमेटी अंजुमन इंतजामिया कमेटी की ओर से दाखिल की गई है। मस्जिद प्रबंधक कमेटी जिला अदालत के फैसले के खिलाफ 21 अप्रैल को इलाहाबाद हाईकोर्ट गई थी और कहा था कि यह उपासना स्थल (विशेष उपबंध) अधिनियम, 1991 का उल्लंधन है, लेकिन हाईकोर्ट ने इस पर रोक लगाने से इंकार कर दिया है, जिसके बाद मस्जिद प्रबंधक कमेटी ने सुप्रीमकोर्ट का रूख किया। यह अधिनियम किसी भी धार्मिक स्थल के धार्मिक स्वरूप को बदलने से प्रतिबंधित करता है, जिसके अनुसार 15 अगस्त 1947 के बाद देश के प्रत्येक धार्मिक स्थल का जो स्वरूप है, उसको वैसा का वैसा बनाए रखने पर जोर देता है। अधिनियम के अनुसार किसी भी दूसरे धर्म के धार्मिक स्थल के स्वरूप को आंशिक और पूर्ण रूप से किसी अन्य धर्म के धार्मिक स्थल बनाने से प्रतिबंधित किया जाता है। इसके साथ यह कानून एक ही धर्म के अगल-अगल पंतों पर भी लागू होता है। अधिनियम की धारा 4 (1) कहती है कि जिस धार्मिक स्थल का स्वरूप 15 अगस्त 1947 को जैसा था, उसे वैसा ही बरकरार रखा जाए। इसी अधिनियम की धारा 4 (2) के मुताबिक धार्मिक स्थल का स्वरूप के बदलने कोई भी नया वाद नहीं दाखिल किया जा सकता है। तत्कालीन कांग्रेस की पीवी नरसिम्हा राव सरकार द्वारा बनाए गये इस इस अधिनियम के खिलाफ लखनऊ के विश्व भद्रा पुजारी पुरोहित महासंघ, कुछ सनातन वैदिक धर्म के लोगों और भाजपा के नेता व वरिष्ठ वकील अश्विनी उपाध्याय ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका डाली थी, जिस पर सुनवाई लंबित है। इस कानून को इस आधार पर चुनौती दी गई है कि यह न्यायिक समीक्षा पर रोक लगाता है, जो संविधान की प्रमुख विशेषता है और मनमाने आधार पर एक कट ऑफ डेट लगाना तर्कहीन है जो हिंदू, जैन, बौद्ध और सिख धर्म के धार्मिक अधिकारों को कम करता है। इस अधिनियम को 1991 में कांग्रेस सरकार ने प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा की ओर से लाया गया था। उस दौरान देश में राम जन्मभूमि के लिए आंदोलन चरम पर था, जिसके कारण देश में सांप्रदायिक तनाव काफी बढ़ गया था। तब राम जन्मभूमि का मामला कोर्ट में विचाराधीन था, इसलिए सरकार ने अयोध्या मामले को इस कानून से बाहर रखा था। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल मार्च में केंद्र सरकार को एक नोटिस जारी कर पूछा था कि याचिकाकर्ताओं की ओर से दाखिल अपीलों के मामले में सरकार का क्या रुख है? जिसपर केंद्र सरकार ने अभी तक कोई जवाब नहीं दिया है। मोदी सरकार का कहना है कि समय के साथ बैकार हो चुके 1800 से ज्यादा कानूनों को पुनर्विचार के बाद बीते 8 साल में खत्म करने का काम किया गया है। पुराने व बैकार कानूनों को खत्म करने का दावा करने वाली मोदी सरकार पर सबकी नजरें हैं, कि आखिर इस मामले में सरकार द्वारा क्या रुख अपनाया जाएगा? क्योंकि सरकार ने यदि 1991 के अधिनियम को निरस्त किया तो यह तय है कि काशी विश्वनाथ मंदिर पर भी कोर्ट को कानून सम्मत होकर सबूतों के आधार पर फैसला सुनाना होगा, जिसमें वाराणसी कोर्ट के आदेश पर हुए सर्वे की रिपोर्ट काफी मददगार साबित होगी। इसी तरह से मथुर की ज्ञानवापी मस्जिद का प्रकरण भी न्यायालय में लंबित है, जिसपर भी निर्णय सबूतों के अनुसार ही होगा। लोगों का यह मानना है कि इन ​तीनों ही मामलों में भाजपा और आरएसएस पर्दे के पीछे से सारा खेल कर रही है, जबकि केंद्र में भाजपा की नरेंद्र मोदी सरकार है, इसलिए आरोप मोदी सरकार पर भी लगने लाजमी हैं। भाजपा और आरएसएस बरसों से कहते आ रहे हैं कि मुगलों के द्वारा भारत में जो मंदिर तोड़कर मस्जिदें बनाई गई थीं, उन मंदिरों को पुन: स्थापित किया जाए। मंदिर आंदोलन, समान नागरिक संहिता, धारा 370 का खात्मा जैसे मुद्दों को लेकर ही भाजपा का जन्म हुआ था, और उन्हीं मुद्दे के आधार पर पार्टी यहां तक पहुंची है। इसलिए लोगों का यह मानना है कि जब तक काशी में विश्वनाथ मंदिर की पुरानी तस्वीर और मथुर में ज्ञानवापी की जगह कृ​ष्ण जन्मभूमि मंदिर बनाने तक ये अभियान जारी रखेंगे। सोचनीय बात यह भी है कि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में बहुसंख्यक हिंदू अपने मंदिरों और आस्था के भवनों को वापस प्राप्त करने के लिए स्वाधीनता के 75 वर्ष बाद भी लड़ ही रहा है, जिनको मुगल आक्रांताओं ने बदनीयत से तोड़फोड़ कर उनका स्परूप बदल दिया था।

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