Ram Gopal Jat
श्रीलंका की इस आर्थिक और राजनीतिक दुर्दशा से दुनिया के कई देशों में बेचैनी है। ये देश सहमे हुए हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर इन देशों की चिंता क्या है? कभी एशिया के खुशहाल और समृद्ध देशों में शुमार श्रीलंका की आर्थिक बदहाली के बाद दुनिया के कई देशों की चिंता बढ़ गई है। श्रीलंका अपनी आजादी के बाद पहली बार इतने बड़े आर्थिक संकट से गुजर रहा है। श्रीलंका के राष्ट्रपति को देश छोड़कर भागना पड़ा है, अब वहां पर रानिल विक्रमसिंघे की कार्यवाहक सरकार है, जल्द ही दूसरी सरकार बनाने की प्रक्रिया शुरू हो जायेगी। इससे पहले 2019 में चुनाव हुये थे, जिसमें गोटबाया राजपक्षे ने आज के हालात की नींव रखी थी। उन्होंने टैक्स आधा करने का वादा किया था, जो चुनाव जीतने के बाद टैक्स को 15 से 8 फीसदी करके पूरा किया। हालांकि, तब तक श्रीलंका की जनता को यह अंदाजा नहीं था कि जो टैक्स कम किया जा रहा है, वही देश की बर्बादी दास्तां लिखेगा।
यह पहली बार नहीं है, जब किसी देश में अर्थव्यवस्था के जर्जर होने के कारण सरकार गिरी है। लेकिन आश्चर्यजनक इसलिये है कि जिस दल की सरकार या जिस नेता की सरकार को चीन का समर्थन मिला होता है, वह कुछ ही समय में बर्बाद होकर निपट जाती है। हम आपको आज एशिया के पांच देशों की कहानी बतायेंगे, जिनको चीन ने कर्जा दिया और अपनी पसंद की सरकार बनाई, लेकिन पिछले दो—तीन साल में ना केवल सरकारें गिरी हैं, बल्कि इन देशों के ही गिरने की नौबत आ गई है।
सबसे पहले बात श्रीलंका की ही करें तो गोटबाया राजपक्षे परिवार बीते 92 साल से देश पर राज कर रहा था। राजपक्षे परिवार की तीन—चार पीढ़ियों के दो दर्जन से अधिक नेता श्रीलंका के राजसी सुख भोग चुके हैं। लेकिन श्रीलंका की बर्बादी की पटकथा तब लिखी गई, जब भारत की चेतावनी को दरकिनार कर राजपक्षे की सरकार ने साल 2017 में अपना हंबनटोटा पोर्ट चीन को लीज पर दे दिया। इस पोर्ट के बदले श्रीलंका को मोटा पैसा मिला। तब श्रीलंका पर चीन का 1.3 बिलियन डॉलर कर्जा था।
श्रीलंका के पास हंबनटोटा के अलावा भी ऐसे चार पोर्ट हैं। इसलिये राजपक्षे की सरकार को लगा कि भारत भी उसके पोर्ट लेने का आयेगा और फिर भारत व चीन के बीच कंपिटीशन का फायदा उठाया जायेगा, लेकिन सबकुछ उलटा हो गया। भारत ने श्रीलंका के पोर्ट में कोई रुचि नहीं दिखाई और राजपक्षे को चीन से नजदीकियों के लिये भी चेताया, मगर चीन की दोस्ती में मस्त गोटबाया राजपक्षे ने साल 2019 के आम चुनाव में अपनी फ्री योजनाओं को बढ़ाते हुय टैक्स भी आधा कर दिया।
यही वह कारण था, जो श्रीलंका की टूटी हुई कमर को तोड़ने में अहम भागीदार था। श्रीलंका के राजस्व का 13 फीसदी हिस्सा पर्यटन से आता है। साल 2020 से 2022 तक चले कोरोना ने पूरी दुनिया को आपस में काट दिया, नतीजा यह हुआ कि जिस श्रीलंका को साल 2019 में पर्यटन से 6.5 अरब डॉलर का राजस्व मिला था, वह इन दो साल में जीरो हो गया। इसके कारण श्रीलंका की अर्थव्यवस्था धवस्त हो गई। ना कागज खरीदने का पैसा बचा, ना तेल खरीदने के लिये रुपये।
आखिर श्रीलंका ने करीब तीन माह पहले खुद को कंगाल घोषित कर दिया। आईएमएफ समेत विदेशों से सहायत की गुहार लगाई, लेकिन इस संकट में श्रीलंका का साथ छोड़कर भागने वाला सबसे पहला देश चीन ही रहा। भारत ने जरुर इस दौरान 3 अरब डॉलर की मदद की, लेकिन यह नाकाफी साबित हुई और अंतत: गोटबाया सरकार के खिलाफ विद्रोह हो गया। राष्ट्रपति भवन पर जनता चढ़ गई तो प्रधानमंत्री के घर को फूंक दिया, लेकिन चीन ने उसकी कोई मदद नहीं की। एक ओर श्रीलंका जल रहा है, तो दूसरी ओर हंबनटोटा पोर्ट की सुरक्षा चीनी सेना के हवाले होने के कारण वहां पर दूसरे देश की भांति सबकुछ सामान्य है।
दूसरा देश है पाकिस्तान, जिसको भी चीन ने ना केवल मोटी रकम दे रखी है, बल्कि अपना सबसे बड़ी परियोजना सीपेक का काम भी चल रहा है। इमरान खान की सरकार ने मोटे निवेश के लालच में इस योजना को पंख लगाये, लेकिन खुद के देश को कंगाली में धकेल दिया। इमरान खान ने चीन के पीछे लगकर अपने देश की आर्थिक हालत खराब कर दी। वहां पर तेल के भाव आसमान पर हैं, आटे—दाल का मिलना मुश्किल है, तो पाकिस्तान का रुपया एक डॉलर के मुकाबले 200 से उपर चला गया है।
भारी कर्ज के बोझ तले दबे पाकिस्तान ने चीन से मदद की गुहार लगाई, लेकिन उसने सहायता देने से साफ इनकार कर दिया। अंतत: खस्ताहाल पाकिस्तान की इमरान खान सरकार गिर गई। अब वहां पर शाहबाज शरीफ की सरकार है, लेकिन उसकी अर्थव्यवस्था कब कंगाल घोषित हो जाये, इसका कोई अंदाजा नहीं लगा सकता। यानी यहां पर भी चीन की समर्थक सरकार निपट चुकी है।
भारत के पूर्व में बसा नेपाल भी कर्जजाल से बेहाल है। वहां पर भी कम्यूनिस्ट पार्टी के केपी शर्मा ओली की सरकार थी, जिसने भारत के बजाये चीन के साथ नजदीकियां बढाईं और ड्रेगन से कर्जा लेता गया। किंतु जब नेपाल बर्बाद सा होने लगा तो सरकार गिर गई और अब वहां पर भी 13 जुलाई 2021 से दक्षिणपंथी माने जाने वाली वाले शेर बहादुर देउबा की सरकार है। देउबा सरकार ने चीन के बजाये भारत से संबंध प्रगाढ़ किये हैं। मतलब यह है कि चीन के साथ नजदीकियां बढाकर केपी शर्मा ओली ने अपनी कुर्सी खो दी।
मालदीव में भी कम्यूनिस्ट पार्टी मानी जाने वाले राष्ट्रपति अब्दुल्लाह यामीन की सरकार थी। वह भी चीन के साथ कर्जा लेकर अपने देश को मजबूत करना चाहते थे। चीन ने इस समुद्री देश में मोटा पैसा निवेश किया। चीन ने यहां पर भी अपनी मर्जी से सरकार चलानी चाही, लेकिन भ्रष्टाचार के मामले में अब्दुल्लाह यामीन जेल चले गये है और वहां पर भी भारत समर्थक माने जाने वाले इब्राहिम मोम्मद साहिल राष्ट्रपति बन हैं। इस वक्त भारत और मालदीव के बीच बहुत गहरे संबंध हैं, लेकिन पूर्व राष्ट्रपति यामीन एक बार फिर से चीन की मदद से 'इंडिया आउट' अभियान चला रहे हैं।
इन देशों के कुछ सियासी लोगों को मानना है कि पड़ोसी देशों में सरकारें बदलने का काम परोक्ष रूप से भारत करता है। हालांकि, इसके कोई प्रमाण नहीं हैं। किंतु पाकिस्तान के मामले में इसको अमेरिका से जोड़कर देखा जाता है, क्योंकि कुर्सी छोड़ने से पहले इमरान खान ने खुलेआम कहा था कि उनकी सरकार गिराने का काम अमेरिका कर रहा है। इमरान चीन समर्थक रहे हैं, जबकि शाहबाज शरीफ अमेरिका के समर्थक माने जाते हैं।
हालांकि, वैश्विक स्तर पर कई देशों की रणनीति परोक्ष रूप से सरकारें बनाने, उनको गिराने और सहायता के द्वारा अपने पक्ष में करने का काम किया जाता है। भारत ने साल 2014 के बाद अपनी रणनीति में बड़े पैमाने पर बदलाव किया है। भारत अब प्रत्यक्ष के बजाये परोक्ष रुप से पड़ोसी देशों के साथ कूटनीतिक संबंध बनाकर चल रहा है। चीन को उसी की भाषा में जवाब, पाकिस्तान को उसी की भाषा में जवाब और नेपाल, मालदीव, श्रीलंका की सरकारों के साथ संबंधों के मामले में भारत सरकार की बदली रणनीति ने कूटनीतिक जानकारों को सोचने पर मजबूर कर दिया है।
वैसे अमेरिका बरसों से दुनिया के कई देशों के साथ कूटनीतिक संबंधों के द्वारा बहुत कुछ पाया है, जो इराक, सीरीया, अफगानिस्तान, इरान जैसे देशों को पूरी तरह से बर्बाद भी किया है। अब यही हाल यूक्रेन के साथ हो रहा है। एक अच्छा खासा आबाद देश यूक्रेन अमेरिका व रूस की महात्वाकाक्षाओं के युद्ध का मैदान बन गया है। अमेरिका इसी तरह की रणनीति एशिया में अपना रहा है, ताकि चीन को युद्ध में झोंककर उसको कमजोर किया जा सके। शायद यही कारण है कि चीन जब ताइवान पर बाहें चढ़ा रहा है, तब अमेरिका उसको समर्थन देने का दावा कर रहा है। ताइवान हारे या जीते, लेकिन इतना तय है कि युद्ध में जाने से उसपर प्रतिबंध लगेंगे और लड़ने से कमजोर भी होगा। इसलिये कई बार लोगों के ये आरोप सही लगते हैं कि नेपाल, श्रीलंका, पाकिस्तान, मालदीव में सरकारें बदलने के पीछे अमेरिका जैसे शक्तिशाली देशों की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता।
भारत और अमेरिका ने बदल दी इन देशों की सरकारें?
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