वसुंधरा ने अलग पार्टी बनाई तो भाजपा जीतेगी 150 सीट


Ram Gopal Jat
राजस्थान विधानसभा चुनाव की तासीर बताती है कि इस बार फिर से भाजपा सरकार बना रही है। आखिरी बार 1993 के दौरान भैरोंसिंह शेखावत ने सरकार रिपीट की थी, उसके बाद राजनीतिक दलों और सभी नेताओं ने हर बार सरकार रिपीट कराने का दावा तो खूब किया, लेकिन राज्य की जनता ने किसी भी दल को लगातार दो बार सत्ता में नहीं बैठने दिया। भले ही फ्री योजनाओं के कारण अशोक गहलोत और कांग्रेस के कई नेता मीडिया के सामने आकर सत्ता रिपीट कराने का दावा करें, लेकिन कोई भी नेता इस बार भी सत्ता रिपीट कराने की गारंटी नहीं दे पा रहा है। कांग्रेस पार्टी इस समय कई तरह की दिक्कतों से गुजर रही है। एक तरफ जहां सचिन पायलट की चुपचाप नाराजगी ने अशोक गहलोत के पसीने छुड़ा रखे हैं, तो मंत्रियों के प्रति क्षेत्र में जनता की नाराजगी विरोध के रूप में खुलकर सामने आने लगी है। हालात यह हैं कि कई मंत्रियों और विधायकों के खिलाफ बगावत भी होने लगी है।

ऐसा नहीं है कि बगावत केवल कांग्रेस में हो रही है। असल बात यह है कि भाजपा में भी बड़ी बगावत के संकेत मिल रहे हैं। संभवत: इतनी बड़ी कि अब तक हुई ही नहीं हो। एक दिन पहले जब भाजपा ने अपनी परिवर्तन यात्रा की शुरुआत की है, तो उससे एक दिन पहले ही पूर्व सीएम वसुंधरा राजे ने देव दर्शन यात्रा शुरू कर बगावत के संकेत दे दिए हैं। भले ही भाजपा के लोग दावा करें कि वसुंधरा राजे की देवी दर्शन यात्रा बगावत नहीं है, बल्कि एक सामान्य कार्यक्रम है, किंतु हकीकत यह है कि इस तरह संगठन के सबसे बड़े कार्यक्रम से इस तरह पूरे तामझाम के साथ बिना पार्टी की अनुमति के देव दर्शन शुरू करना किसी बगावत से कम नहीं है। खुद वसुंधरा ने इस मौके पर यह कहकर चर्चा को और हवा दे डाली है कि जब भी वह कोई बड़ा काम करती हैं तो उससे पहले राजसमंद के चारभुजा मंदिर के दर्शन करती हैं। वसुंधरा के बड़े काम के कई मायने निकाले जा रहे हैं। चर्चा इसलिए भी हो रही है, क्योंकि जब पार्टी ने सवाई माधोपुर से यात्रा शुरू कर दी है तो इससे बड़ा काम क्या हो सकता है? दूसरी ओर यदि वसुंधरा के व्यक्तिगत कार्यों को बड़ा कहें तो उनके परिवार में भी ऐसा कोई आयोजन नहीं हो रहा है, जिसको बड़ा कहा जाए।

तब सवाल यह उठता है कि आखिर वसुंधरा वो कौन सा बड़ा काम करने जा रही हैं, जिसके लिए चारभुजा मंदिर के दर्शन कर शुरुआत की है। वसुंधरा के बड़े काम को लोग उनके भाषण के अंदर छुपे संदेश में भी देख रहे हैं। उन्होंने सवाई माधोपुर में भाजपा की परिवर्तन यात्रा में दिए गए भाषण में सबसे ​अधिक फोकस ईआरसीपी के ऊपर किया, जबकि इसी मुद्दे पर कांग्रेस पार्टी भाजपा को घेरने का काम कर रही है। राज्य की अशोक गहलोत ईआरसीपी को केंद्रीय परियोजना घोषित कराने के लिए बार बार बयान दे रहे हैं। जबकि दूसरी तरफ यह भी कह रहे हैं कि केंद्र सरकार इसको पूरा नहीं करेगी, इसलिए राज्य सरकार ही इसको पूरा करेगी। गहलोत सरकार ने इसको लेकर बजट की घोषणा भी की है, ताकि जनता को यह लगे कि कांग्रेस सरकार इस मामले में बहुत गंभीर है।

वसुंधरा ने अपने भाषण में साफ कर दिया है कि इस परियोजना की शुरुआत उनकी सरकार ने 2005 में की थी, लेकिन 2008 में सरकार बदलने के बाद गहलोत सरकार ने इसको डिब्बे में बंद कर​ दिया। वसुंधरा ने यह भी बताया​ कि जब 2013 में उनकी सरकार आई तो इसकी डीपीआर बनाने का काम किया गया, लेकिन बीते चार साल में अशोक गहलोत ने भाषण देने के अलावा कोई काम नहीं किया। इससे पता चलता है कि गहलोत केवल भाषण देकर भाजपा के खिलाफ माहौल बनाने के अलावा कोई काम नहीं कर रहे हैं। वसुंधरा ने यह भी कहा​ कि अपने खून पसीने से इस योजना को पूरा करने का काम किया जाएगा, इसको कोई नहीं रोक पाएगा। जबकि दूसरी तरफ भाजपा की केंद्र सरकार इसपर चुप है, केवल भाषण देने के लिए जल शक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत बोलते हैं कि इस परियोजना की संशोधित डीपीआर राज्य सरकार नहीं भेज रही है, जिसके कारण इसको पूरा नहीं किया जा सकता है।

एक ओर जहां पार्टी इस मामले पर चुप थी, तो वसुंधरा ने इस मुद्दे को छेड़कर एक तरह से खुद की ही केंद्र सरकार को घेरने का काम किया है। गहलोत भी बार बार यही कह रहे हैं कि योजना को पूरा करने के लिए इसको राष्ट्रीय परियोजना घोषित किया जाए, तो वसुंधरा ने कहा है कि इस योजना को अपना खून पसीने देकर भी पूरा करने का काम किया जाएगा। इसके मायने को यदि समझें तो यही निकलकर सामने आता है कि वसुंधरा भी परोक्ष रूप से यही कह रही हैं कि जो भी इसको रोकने का काम कर रहे हैं, उनको छोड़ा नहीं जाएगा। जबकि उसी मंच पर केंद्रीय जलशक्ति मंत्री भी शेखावत भी मौजूद थे। इस तरफ एक प्रकार से वसुंधरा ने अपनी ही पार्टी के केंद्रीय मंत्री को घेरने का काम किया है, जबकि इस भाषण के जरिए परोक्ष रूप से पीएम मोदी भी हमला माना जा रहा है।

ऐसे में सवाल यह भी उठता है कि यदि वसुंधरा आने वाले समय में भाजपा से बगावत कर किनारा कर लेती हैं, तो क्या भाजपा सत्ता प्राप्त नहीं कर पाएगी? क्योंकि वसुंधरा के समर्थकों का मानना है कि राजस्थान में वसुंधरा का कोई विकल्प नहीं है, जीतने के लिए वसुंधरा को वापस लीड रोल में लाना ही होगा। जबकि हकीकत यह है कि वसुंधरा समर्थक उस चीज को नहीं देख पा रहे हैं, जो भाजपा की टॉप लीडरशिप कर रही है। बीते दो दशक में ऐसा पहली बार हो रहा है जब भाजपा की लीडर वसुंधरा नहीं होकर खुद पीएम मोदी को ही आगे रखकर प्रचार किया जा रहा है। पहली बार 2002 में भाजपा ने जब वसुंधरा को प्रदेशाध्यक्ष बनाकर भेजा था, तब से 2018 के चुनाव तक बिना किसी प्रश्न के वसुंधरा ही सर्वमान्य नेता हुआ करती थीं, और भाजपा आलाकमान भी हमेशा उनको ही नेता बोलकर प्रचार करता था, किंतु यह पहला अवसर है, जब वसुंधरा के बजाए पीएम मोदी के नाम पर चुनाव लड़ा जा रहा है। एक दिन पहले गजेंद्र सिंह शेखावत ने भी कहा कि भाजपा राजस्थान में मोदी के चेहरे पर ही चुनाव लड़ेगी, यानी वसुंधरा राजे को सीन से बाहर कर दिया गया है।

ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या वसुंधरा राजे अब बिना सीएम चेहरा बने भाजपा के साथ बनी रहेंगी? सवाल यह भी उठ रहा है कि यदि वसुंधरा सीएम नहीं होंगी तो क्या वह किसी अन्य को सीएम बनते हुए देख पाएंगी, जबकि सबको पता है कि वह तीसरी बार सीएम बनने के सपने देख रही हैं। दरअसल, वसुंधरा की दो खास बातें हैं। पहली तो वह जो ठान लेती हैं, वो करके दिखाती हैं, यानी जिद्दी बहुत अधिक हैं। दूसरी यह है​ कि वह जिस काम को करने लगती हैं, उसमें पूरी शिद्दत से जुट जाती हैं। इन दिनों यह भी चर्चा चल रही है कि यदि भाजपा ने वसुंधरा को सीएम बनाने का आश्वासन नहीं दिया तो वह भाजपा को ही सत्ता से बाहर रखने का काम कर सकती हैं। तब प्रश्न यह उठता है कि आखिर कैसे वसुंधरा इस तरह से भाजपा को सत्ता से बाहर रख पाएंगी, क्योंकि वह खुद भाजपा की सरकार बनाने का दावा कर रही हैं? देखा जाए तो कोई भी बड़ा नेता किसी दल को दो तरह से नुकसान करता है। पहला तो विरोधी दल के खिलाफ प्रचार कर उसको सत्ता से दूर रखने में कामयाब होता है। दूसरा जब अपने ही दल को सत्ता से बाहर करने की ठान ले तो फिर अंदर बैठकर परोक्ष रूप से दल विरोधी काम करता है, जिसमें उसके समर्थक पार्टी के खिलाफ काम करते हैं।

पहला रास्त इसलिए नहीं है, क्योंकि वसुंधरा अभी तक भाजपा में ही हैं।  जब तक वह अलग दल या विपक्षी दल में नहीं जाएंगी, तब तक पहला मार्ग नहीं अपना पाएंगी, लेकिन दूसरा रास्त वसुंधरा बीते चार साल से अपना ही रही हैं। फिर भी उनको मन माफिक सफलता नहीं मिल पा रही है। राजनीतिक विश्लेषकों का दावा है कि पार्टी में रहकर वसुंधरा भाजपा को नुकसान नहीं कर पाएंगी, लेकिन यदि वह भाजपा छोड़ देती हैं, तो पार्टी को बड़ा फायदा होगा। ऐसा इसलिए होगा, क्योंकि इतिहास इस बात का गवाह है कि जनता दो तरह से वोट करती है। पहला किसी को हटाने के लिए और दूसरा किसी को बनाने के लिए। राजस्थान की राजनीति में जब वसुंधरा को सक्रिय किया गया था, तब इसी तरह से चुनौती से उनको भी दो चार होना पड़ा था। साल 1999 के दौरान जब अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने राजस्थान के जाट समाज को ओबीसी में आरक्षण की घोषणा की थी, तब पहले की ओबीसी जातियों के कारण भाजपा को काफी दिक्कत हो रही थी। कई जातियों ने भाजपा का विरोध​ किया था, जिसके चलते प्रदेश अध्यक्ष बनाने के बाद भी वसुंधरा राजस्थान में सक्रिय नहीं हो पाई थीं। बाद में जब 2003 के दौरान परिवर्तन यात्रा निकाली, तब भी वसुंधरा को करीब डेढ़ दर्जन रैलियों को रद्द कर दिया था, जिसके पीछे अशोक गहलोत का हाथ था।

चार साल लगातार अकाल से जूझते राजस्थान में जब केंद्र से आने वाले अनाज की बंदरबांट हुई और नेताओं ने अपने खजाने भर लिए थे, तब अशोक गहलोत के इशारे पर भाजपा के खिलाफ भाजपा के ही विचार से निकले नेताओं का संगठन बन गया था। सामाजिक न्याय मंच ने पूरे राजस्थान में चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया था। कहा जा रहा था कि अशोक गहलोत के बेहतरीन अकाल राहत प्रबंधन और सामाजिक न्याय मंच के कारण भाजपा सत्ता में नहीं आ पाएगी, लेकिन बाद में परिणाम बिलकुल उलट रहा। जो भाजपा कभी पूर्ण बहुमत की सरकार नहीं बना पाई थी, उसको 120 सीटों के साथ पूर्ण बहुमत मिला। आज की तारीख में सामाजिक न्याय मंच नहीं है, लेकिन उसकी भूमिका आरएलपी निभा रही है। भाजपा से निकले हनुमान बेनीवाल के पास जितना वोट कांग्रेस का है, उससे अधिक भाजपा से टूटा हुआ माना जाता है। यानी मोटे तौर पर देखा जाए तो आरएलपी के कारण भाजपा के खिलाफ उसी तरह का माहोल बताया जा रहा है, जैसे 2003 में सामाजिक न्याय मंच के कारण था।

किसी का विरोध ​दूसरे को फायदा करता है, तो किसी को हटाने का संकल्प किसी को लाने का संकल्प बना देता है। 2003 में अशोक गहलोत को हटाने का संकल्प था तो वसुंधरा राजे को सत्ता में लाने का संकल्प जनता ने ले लिया था। इस बीच सामाजिक न्याय मंच अपने ही जगह तलाश रहा था, लेकिन जनता ने गहलोत को हटाने के लिए वसुंधरा को वोट कर दिया। परिणाम यह हुआ कि सामाजिक न्याय मंच खाली हाथ रह गया। उस समय उस मंच को पीछे से ताकत देने का काम अशोक गहलोत कर रहे थे, आज आरएलपी को कौन ताकत दे रहा है, यह कहा नहीं जा सकता है, लेकिन कुछ महीने पहले कांग्रेस नेता हरीश चौधरी ने आरएलपी का नाम लिए बिना आरोप लगाया था कि राजस्थान में अशोक गहलोत की एक और पार्टी है, जिसको वह पालने—पोषने का काम करते हैं। यह बात या तो अशोक गहलोत जानते हैं या फिर हनुमान बेनीवाल, लेकिन भाजपा के लिए जो काम 2003 में सामाजिक न्याय मंच ने किया था, वही काम आज आरएलपी कर सकती है।

अब सवाल यह उठता है​ कि यदि वसुंधरा राजे अलग पार्टी बना लेती हैं या किसी दूसरे दल में चली जाती हैं, तो क्या वो भाजपा को सत्ता से दूर रख सकती हैं? दरअसल, जब भी भाजपा की सरकार बनती है, तब निर्दलीयों की संख्या कम होती है। साथ ही छोटे दलों को भी कम ही सीटें मिलती हैं। इसी तरह से जो भी सियासी दल या नेता भाजपा के खिलाफ खड़े होते हैं, तब भाजपा को ही फायदा होता है। याद ​कीजिए भाजपा से निकलकर अलग दल से चुनाव लड़ने वाले किरोड़ी लाल मीणा की पार्टी को केवल चार सीट मिली थी, जबकि सियासी विशलेषक दावा कर रहे थे कि कम से कम 20 सीटों पर जीत मिलेगी। किरोडीलाल के अलग होकर चुनाव लड़ने का फायदा 2013 में भाजपा को मिला। इसी तरह से जब भाजपा के ही नाराज नेताओं ने सामाजिक न्याय मंच बनाया, तब भी भाजपा को पूर्ण बहुमत मिला। इस तरह साफ है कि यदि भाजपा के नेताओं या समान विचारधारा वाले नेताओं ने भी बीजेपी के अलग होकर राज्य में पूरी ताकत से चुनाव लड़ा तो निश्चित तौर पर भाजपा को ही फायदा होगा।

इसलिए कुछ राजनीतिक शोधकर्ता कहते हैं कि यदि आरएलपी ने पूरी ताकत से अलग होकर चुनाव लड़ा तो भी भाजपा को लाभ होगा और सीएम नहीं बनाए जाने से नाराज होकर यदि वसुंधरा ने अलग पार्टी से या फिर छद्म रूप में अपने लोगों को चुनाव लड़ाया, तो भाजपा इस बार 150 से पार चली जाएगी। राजनीतिक इतिहास को लेकर शोधकर्ताओं ने दावा किया है कि इस बार फिर से अशोक गहलोत की लीडरशिप में कांग्रेस हार का इतिहास बनाने वाली है, जिसमें सोने पर सुहागा होगा सचिन पायलट गुट का अंदरखाने पार्टी को चोट पहुंचाना। यह बात सही है कि पायलट आज कांग्रेस के साथ दिखाई दे रहे हैं, लेकिन पार्टी के साथ उनकी निष्क्रियता और साथ ही गुर्जर समाज का कांग्रेस से नाराज होना अशोक गहलोत की हार में बहुत बड़ा रोल निभाने वाला है। 

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